जल-विद्युत का तर्कसंगत दोहन

सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक बात तो यह है कि यहाँ ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जल-विद्युत परियोजनाओं को स्वीकृत करने के साथ-साथ इन परियोजनाओं के सम्बन्ध में निर्धारित मापदण्डों व नियमों को भी ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया जा रहा है।

संजय ठाकुर
देश के विकास में जल-विद्युत परियोजनाओं का योगदान तो स्वयं-सिद्ध है, लेकिन जल-विद्युत के दोहन का तर्कसंगत होना भी ज़रूरी है। जल-विद्युत के तर्कसंगत दोहन के बग़ैर ये परियोजनाएं विकास से कहीं ज़्यादा विनाश लाती हैं। फिर इनकी दास्तान वही रह जाती है कि पहाड़ों को निचोड़ दिया गया, धरती को प्यासा कर दिया गया और चाँदी बटोरने के लिए कुछ लोगों ले धरती पर बहती चाँदी जैसी जलधारा को मिटाकर प्रकृति को रौंदने का षड्यन्त्र रच डाला। यही वास्तविकता विद्युत-राज्य के रूप में विकसित हिमाचल प्रदेश की जल-विद्युत परियोजनाओं की भी है। सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक बात तो यह है कि यहाँ ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जल-विद्युत परियोजनाओं को स्वीकृत करने के साथ-साथ इन परियोजनाओं के सम्बन्ध में निर्धारित मापदण्डों व नियमों को भी ताक पर रखकर बड़े पैमाने पर पर्यावरण को नुकसान पहुँचाया जा रहा है। यहाँ यह कहानी नदियों से शुरु हुई, फिर सहायक नदियों से होती हुई बड़े नालों तक जा पहुँची और अब तो यह हाल है कि छोटे-छोटे नालों पर भी जल-विद्युत परियोजनाएं, या तो खड़ी कर दी गई हैं, या फिर चलाई जानी स्वीकृत हैं। प्रदेश में चल रही और स्वीकृत जल-विद्युत परियोजनाओं की संख्या देखेंगे तो हो सकता है कि आप हैरानी में पड़ जाएं। वर्तमान समय में यहाँ छोटी-बड़ी 418 जल-विद्युत परियोजनाएं, या तो चलाई जा रही हैं, या फिर चलाई जानी स्वीकृत हैं। इन परियोजनाओं की कुल विद्युत-उत्पादन-क्षमता 14,690.895 मैगावॉट है। विद्युत का इतना उत्पादन निश्चित ही विकास को नए आयाम दे सकता है, लेकिन उसका तर्कसंगत होना ज़रूरी है। यहाँ महत्वपूर्ण बात यह है कि प्रदेश के इतने बड़े पैमाने पर विद्युत-उत्पादन की न तो कोई सही दिशा है और न ही इसका कोई तर्कसंगत आधार। यहाँ इस बात पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है कि विद्युत के इस अन्धाधुन्ध दोहन के पीछे पहाड़ों का दर्द और धरती का रुदन छुपा है।
हिमाचल प्रदेश को विद्युत-राज्य का दर्जा बहुत पहले ही तब मिल गया था जब यहाँ केन्द्र सरकार के सहयोग से बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएं चलाई गई थीं। इन परियोजनाओं की कुल विद्युत-उत्पादन-क्षमता 2,727 मैगावॉट है जिसमें से 1,500 मैगावॉट विद्युत-उत्पादन-क्षमता सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड के अन्तर्गत चलने वाली परियोजना की है। इस समय प्रदेश में चार बड़ी जल-विद्युत परियोजनाएं केन्द्र सरकार के साथ संयुक्त रूप से चलाई जा रही हैं। इसके अतिरिक्त प्रदेश अकेले ही 1,531.45 मैगावॉट विद्युत-उत्पादन-क्षमता की कुल 30 परियोजनाएं भी चला रहा है। साथ ही प्रदेश में केन्द्र सरकार द्वारा 4,102 मैगावॉट विद्युत-उत्पादन-क्षमता की छह और परियोजनाएं भी चलाई जा रही हैं। इस तरह से देखें तो वर्तमान समय में यहाँ राज्य व केन्द्र सरकारों द्वारा कुल 40 जल-विद्युत परियोजनाएं चलाई जा रही हैं जिनकी कुल उत्पादन-क्षमता 8,360.40 मैगावॉट है। साथ ही यहाँ निजी क्षेत्र में भी कुल 86 जल-विद्युत परियोजनाएं चलाई जा रही हैं जिनकी कुल उत्पादन-क्षमता 5,795.45 मैगावॉट है। इस तरह से वर्तमान समय में प्रदेश में राज्य व केन्द्र की सरकारों द्वारा और निजी क्षेत्र की कुल 126 जल विद्युत परियोजनाएं चलाई जा रही हैं जिनकी कुल विद्युत-उत्पादन-क्षमता 14,155.90 मैगावॉट है।
हिमाचल प्रदेश में इतने बड़े पैमाने पर चलाई जा रही जल-विद्युत परियोजनाओं की वास्तविक स्थिति क्या है, इस पर ग़ौर करना बहुत ज़्यादा ज़रूरी है। यहाँ चल रही 126 परियोजनाओं में से सिर्फ़ 50 परियोजनाएं विद्युत-उत्पादन की स्थिति में हैं। इन परियोजनाओं की कुल उत्पादन-क्षमता 3,478 मैगावॉट है। इनमें 1,500 मैगावॉट उत्पादन-क्षमता की राज्य व केन्द्र की सरकारों द्वारा संयुक्त रूप से चलाई जा रही प्रदेश की सबसे बड़ी सतलुज जल विद्युत निगम लिमिटेड के अन्तर्गत चलने वाली परियोजना के अतिरिक्त, राज्य सरकार की 466.95 मैगावॉट उत्पादन-क्षमता की 20 परियोजनाएं और केन्द्र सरकार की 1,020 मैगावॉट क्षमता की तीन परियोजनाएं हैं। इनके अतिरिक्त निजी क्षेत्र की भी 492.05 मैगावॉट उत्पादन-क्षमता की तीन परियोजनाएं हैं। इस तरह से देखें तो प्रदेश में चल रही कुल 126 परियोजनाओं में से 50 परियोजनाएं ही उत्पादन की स्थिति में हैं जिस कारण प्रदेश में चलाई जा रही 126 परियोजनाओं की कुल 14,155.90 मैगावॉट उत्पादन-क्षमता में से 3,478 मैगावॉट विद्युत-उत्पादन की ही स्थिति बन पाई है। इस उत्पादन की भी वास्तविकता यह है कि प्रदेश में इतना भी विद्युत उत्पादन नहीं हो पा रहा है।
इस सारे प्रकरण में सबसे ज़्यादा हास्यास्पद बात तो यह है कि एक तो प्रदेश में पहले से चल रही जल-विद्युत परियोजनाओं को ही सही ढंग से नहीं चलाया जा रहा है, और प्रदेश सरकार द्वारा 534.995 मैगावॉट उत्पादन-क्षमता की 292 और परियोजनाएं स्वीकृत कर दी गई हैं। इन परियोजनाओं के पीछे की वास्तविकता में भ्रष्टाचार का दुष्चक्र है। यह भ्रष्टाचार प्रदेश सरकार व प्रशासनिक स्तर के कुछ लोगों ने बहुत बड़े पैमाने पर किया है।
नई परियोजनाओं को स्वीकृत करने से पहले इनकी आवश्यकता या चलाए जाने की स्थिति को नहीं बल्कि प्रत्येक परियोजना पर मिलने वाली कमिशन को देखा गया। कमिशन लेकर स्वीकृत की गई इन परियोजनाओं का हश्र क्या हो सकता है, इस पर ज़्यादा बात करने की ज़रूरत नहीं है। ऐसी कुछ परियोजनाओं पर काम भी शुरु हुआ है। पहाड़ों के दर्द और धरती के रुदन की चीत्कार इन परियोजनाओं में सुनी जा सकती है। प्रकृति को आदमी कितनी बुरी तरह से रौंद सकता है, इसका भयावह रूप हिमाचल प्रदेश के ज़िला किन्नौर के विभिन्न क्षेत्रों में साफ़ देखा जा सकता है। यहाँ कई स्थानों पर नदी-नालों की दिशा मोड़ दी गई है, तो कई स्थानों पर नदी नालों को बड़ी-बड़ी सुरंगों में ग़ायब कर दिया गया है। इन नदी-नालों के प्राकृतिक मार्ग को बदलकर इनके प्राकृतिक मार्ग के आसपास के स्थानों को जलविहीन करके उजाड़ दिया गया है। एक लम्बे समय से ज़्यादा नमी में विकसित होने वाले यहाँ के बहुत-से पेड़-पौधों सहित भारी मात्रा में अन्य वनस्पति सूख चुकी है और शेष लगातार सूखती जा रही है। इस सबके बावजूद भी प्रदेश सरकार इस तरफ़ से आँख मूंदे हुए है। ऐसी ज़्यादातर परियोजनाओं को स्वीकृत करने से पहले सभी निर्धारित मापदण्डों व नियमों को नज़रअन्दाज़ किया गया है। उदाहरण के लिए किसी भी परियोजना को स्वीकृत करने से पहले स्थान-विशेष की स्थिति को देखा जाता है। यह स्थान वन-क्षेत्र से एक निश्चित व निर्धारित दूरी पर होना चाहिए। अब वास्तविक स्थिति यह है कि ज़्यादातर परियोजनाओं को स्वीकृत करने से पहले इस पहलू पर ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझा गया। इसका नतीजा यह निकला है कि ऐसी बहुत-सी परियोजनाएं वन-क्षेत्र में या वन-क्षेत्र के आसपास निश्चित व निर्धारित दूरी से कम दूरी पर स्वीकृत की गई हैं। ऐसी परियोजनाओं को स्वीकृत करने से पहले पर्यावरण वाले पक्ष को बिल्कुल ही नज़रअन्दाज़ कर दिया गया है। इस सम्बन्ध में जब हिमाचल प्रदेश के गृह विभाग के प्रधान सचिव से पूछा गया कि ऐसी किसी भी परियोजना को स्वीकृत करने से पहले पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए क्या कदम उठाए गए हैं और उठाए जा रहे हैं, तो इसका जवाब प्रधान सचिव ने सम्बन्धित विभाग से मंगवाया। सम्बन्धित विभाग का कहना था कि कोई भी विकास पर्यावरण को सुरक्षित रखकर नहीं किया जा सकता। यह जवाब जहाँ चिन्ताजनक व ग़ैर-ज़िम्मेदाराना है वहीं इससे यह भी स्पष्ट हो जाता है कि हिमाचल प्रदेश सरकार न तो पर्यावरण को लेकर चिन्तित है और न ही उसने जल-विद्युत परियोजनाओं को स्वीकृत करने से पहले पर्यावरण को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक पहलुओं को ध्यान में रखा है। इस तरह से कुछेक लोगों के फ़ायदे के लिए पर्यावरण को बड़े पैमाने पर पहुँचाए जा रहे नुकसान पहुँचाया जा रहा है।
हिमाचल प्रदेश में जल-विद्युत परियोजनाओं के अन्धाधुन्ध ‘विस्तार’ की वास्तविकता यह है कि प्रदेश की विद्युत-राज्य की छवि और यहाँ जल-विद्युत-उत्पादन की सम्भावनाओं व क्षमताओं के चलते जल-विद्युत परियोजनाएं यहाँ की सरकार व प्रशासन के कुछ लालची व भ्रष्ट राजनेताओं व अधिकारियों के लिए धन ऐण्ठने का आसान ज़रिया बनकर आई हैं। निजी क्षेत्र की ऐसी लगभग सभी परियोजनाओं का आधार इन राजनेताओं व अधिकारियों द्वारा वसूली गई भारी कमिशन है। यह बात अब पर्दे के पीछे की भी नहीं रह गई है। एक बार प्रदेश के सचिवालय में एक मुख्यमन्त्री के कार्यालय से एक सूटकेस मिला जो किसी कर्मचारी के हाथ लग गया था। इस सूटकेस में एक करोड़ रुपये थे। बाद में पता चला कि यह धन ऐसी ही किसी परियोजना या किन्हीं परियोजनाओं की कमिशन का था। यह बात और है कि मामला मुख्यमन्त्री के कार्यालय का होने से इसे रफ़ा-दफ़ा कर दिया गया।
सारी बातों को एक तरफ़ रख दें तो एक बड़ी वास्तविकता यह है कि हिमाचल प्रदेश में ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जल-विद्युत परियोजनाएं स्वीकृत की जा रही हैं। यहाँ पहले से चल रही परियोजनाओं को ही सही ढंग से चला लिया जाए तो ज़रूरत से भी कहीं ज़्यादा विद्युत-उत्पादन किया जा सकता है। ऐसी परियोजनाओं में जल-विद्युत का निर्धारित मापदण्डों व नियमों का पालन कर, प्रत्येक दृष्टि से सुरक्षित व लाभपूर्ण दोहन किया जा सकता है। इस समय प्रदेश में राज्य व केन्द्र की सरकारों द्वारा अलग-अलग व संयुक्त रूप से बहुत-सी परियोजनाएं चलाई जा रही हैं। इस तरह से जहाँ जल-विद्युत-उत्पादन को बढ़ाकर विकास की गति को तेज़ किया जा सकता है वहीं पहाड़ों को भी उजड़ने से बचाकर पर्यावरण को सुरक्षित रखा जा सकता है। कुछेक मुनाफ़ाखोरों व धन-लोलुपों के लिए प्रकृति का यह चीर-हरण बिल्कुल भी तर्कसंगत नहीं है।

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