वीरान हैं बिशु की जुबड़ियां

सरला कुमारी
इस बार वैश्विक कोरोना महामारी के चलते बिशु की जुबड़ियां वीरान हैं। इस महामारी ने बिशु मनाने की परम्परा को ही तोड़ दिया है। हज़ारों की संख्या में लोगों के खिलखिलाते चेहरे, ढोल, शहनाई व बाँसुरी की गूँज, गुब्बारों के पीछे भागते बच्चे, बड़े-बड़े झूले में झूलते बच्चे व युवा, उपहार ख़रीदने के लिए लगी भीड़ जैसी यादें ही रह गई हैं। बिशु के आरम्भ होने से चार-पाँच दिन पहले मायके आने वाली बहन-बेटियां इस बार नहीं आईं। ठोडा के खेल का आनन्द उठाने वाले बुज़ुर्ग और युवा मायूस हो गए हैं। बैसाख की संक्रान्ति आते ही बिशु की चहल-पहल आरम्भ हो जाती थी, लेकिन इस वर्ष कोरोना महामारी के कारण सन्नाटा-सा छाया है। सभी लोगों के मन उदास हैं।
बैसाख महीना आरम्भ होते ही हिमाचल प्रदेश के पहाड़ी क्षेत्रों में पौराणिक एवं सांस्कृतिक मेले जिन्हें बिशु कहा जाता है, आरम्भ हो जाते हैं। बिशु का आयोजन राज्य के सभी पहाड़ी क्षेत्रों में होता है। दस-ग्यारह प्रविष्टे बैसाख को ज़िला शिमला की तहसील चौपाल के संराह नामक स्थान पर बिजट महाराज के प्राँगण में, बारह-तेरह प्रविष्टे बैसाख को धबास नामक स्थान पर माता डूण्डी देवी के प्राँगण में और चौदह-पन्द्रह प्रविष्टे बैसाख को कुपवी नामक स्थान पर बिशु का आयोजन किया जाता है। इसी प्रकार हिमाचल के अन्य पहाड़ी क्षेत्रों में स्थानीय देवता के प्राँगण में अलगअलग तिथियों पर बिशु को मनाने का विशेष महत्व है।
बिशु के अवसर पर मन्दिरों और घरों की लिपाई-पुताई करके सफ़ाई करते की जाती है। रंग-बिरंगे कपड़े और सोने-चाँदी के आभूषण बनाए जाते हैं। सभी स्थानीय लोग अपनी बहन-बेटियों और अन्य रिश्तेदारों को आमन्त्रित करते हैं। बिशु के अवसर पर सुख-शान्ति और वर्ष भर की फ़सलों की अच्छी पैदावार की कामना की जाती है।
जुबड़ी कहे जाने वाले एक घास के मैदान को बिशु के आयोजन-स्थल के रूप में बिशू से एक दिन पहले सजाया जाता है। स्थानीय देवता का पुजारी देवता की पारम्परिक पूजा करके उन्हें सजाकर जुबड़ी में ले जाता है। देवता का ढोल बजाकर बिशु को आरम्भ किया जाता है। एक मान्यता के अनुसार राजपूत (क्षत्रिय) दलों द्वारा महाभारत के प्रतीकात्मक युद्ध के रूप में ठोडा का खेल खेला जाता है। बिशु के आरम्भ होने के दस-पन्द्रह दिन पहले खूँद (ठोडा-दल) को आमन्त्रित किया जाता है। राजपूतों के खूँद-दल पारम्परिक तरीके से ठोडा के खेल की पौशाक पहने हुए वाद्य यन्त्रों के स्वर कर बीच हाथ में डाँगरा और तीर-कमान लेकर एक दल दूसरे दल को ललकारते हुए जुबड़ी में नृत्य करते हुए प्रवेश करते हैं। बिशु की जुबड़ी में दुकानें लगती हैं। कपड़े, जूते, खिलौने, मिठाइयां और अन्य प्रकार की दुकानों से जुबड़ी सजाई जाती है। एक स्थान पर बड़े-बड़े झूले लगाए जाते हैं।
स्थानीय लोग बिशु का बेसब्री से इन्तज़ार करते हैं। दूर-दूर से आए लोग इसका भरपूर आनन्द उठाते हैं। इस अवसर पर तरह-तरह के सामान की ख़रीददारी की जाती है, एक-दूसरे को उपहार दिए जाते हैं, मिठाइयां बाँटी जाती हैं और एक-दूसरे को बधाई दी जाती है। इस दौरान दूर-दराज़ से आई बहन-बेटियां और अन्य रिश्तेदार आपस में मिलते हैं। श्रद्धालु देव-दर्शन करने के बाद नाटी डालकर नृत्य करते हैं। उसके बाद स्थानीय देवता को मन्दिर में वापस प्रवेश करवाया जाता है। इस बार इस चहल-पहल को जैसे ग्रहण लग गया हो।

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