रेहड़ी-फड़ी वाले

दिनेश शर्मा

क़ानून की बन्द आँख पर
सजा ली है तूने अपनी रेहड़ी
और खरोंच दिया है सारा विधान
व्यवस्था का सौन्दर्य डगमग करने वाले
ओ सड़क छाप
तुम होते हो कौन।

अवैध कॉलोनियों में सोया
जगा दिया है तूने
दम्भ से लबालब प्रशासन
थाने में चढ़ा, उतार दिया है सरूर
दनदनाती आएंगी म्युनिसिपैलिटी की गाड़ियां
छीन-झपट कर ले जाएंगी
मात्र सैकड़ों का तुम्हारा निवेश
क्षणों में उतर जाएगा
चिन्दी-चिन्दी ख़रीद-बेच कर
कमाने-खाने का ये गरूर।

क्या है अधिकार तुम्हें कि
सजे-धजे शो-रूम की बगल में
एक तरपाल या पॉलीथीन ओढ़
बसा लेते हो अपनी रेहड़ी
और सभ्य शहर के कानों में
चिल्लाकर बुलाते हो अपने ग्राहक
हल्की चीज़ों से
भर लेते हो दुनिया।

सस्ती सब्ज़ियां बेचकर तुम
घर बैठी गृहणियों को बरगलाते हो
गलियों में खिलौने सजाकर
बच्चों को ललचाते हो
ब्राण्ड का लेबल लगी
दुनिया के ख़िलाफ़
सस्ता तुम्हारा ये फड़ीतन्त्र
कोई विद्रोह तो नहीं।

इस तरह सड़क पर बिछाकर
मत बेचो अपनी ग़रीबी
माँ की दवाई, बीवी के अरमान, बेटी के सपने
तर्क की दुनिया में रखते नहीं भाव
बेघर-बंजारा होना नहीं है कोई दलील।

तोतों के मुँह से बाँच लो तुम भविष्य
शाही दवाखाना से
कमज़ोरी के कर लो उपचार
नागों के नाम से माँगो
शनि को शान्त करो
या बन्दर-भालू नचाओ
छोड़ दो बस हमारी सड़कें
यूँ शहर पर हमारे
छुटपन के दाग़ न लगाओ।

यहाँ से गुज़रते हैं सरताजों के काफ़िले
साहबों की गाड़ियां
मेम और उनके कुत्ते
टैक्स देकर बिकती है शराब
रेस्तरां और क्लबों की प्यालियों में
धीरे से घुलती है शाम
ये सड़कें अंग्रेज़ी में भौंकती हैं
छोटी कुर्तियों के गहरे कटाव से
दिलों में झाँकती हैं
पूनम के चाँद के केतु
जाओ, अपना ग्रहण यहाँ न लगाओ।

इस तरह से ख़रीदने-बेचने वाले
ख़्वाइशों के गुड़ के ढेले
मुँह में रखने वाले
छोटी ज़रूरतों को पूरा करती
अलग क्यों नहीं बसा लेते
अपनी दुनिया।

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