महिलाओं की बढ़ती असुरक्षा

देश में महिलाओं के प्रति हो रहीं अपराध की घटनाएं निश्चित ही देश में महिलाओं की स्थिति पर सवाल उठाती हैं। आए दिन महिलाओं को घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन-शोषण और दूसरे कई तरह के उत्पीड़न का दंश झेलना पड़ रहा है। यहाँ तक कि कई मामलों में उसे सामूहिक बलात्कार तक का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में प्राथमिकता के आधार पर काम करने की ज़रूरत है।

संजय ठाकुर
भारत के नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा देश में महिलाओं की स्थिति पर पिछले दिनों जारी रिपोर्ट देश में महिलाओं की बढ़ती असुरक्षा की एक चिन्ताजनक तस्वीर पेश करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में हर घण्टे चार महिलाएं बलात्कार का शिकार हो रही हैं। इस तरह देखें तो हर पन्द्रह मिनट में बलात्कार की एक घटना घट रही है। इस रिपोर्ट के अनुसार देश में बलात्कार का आँकड़ा अठत्तीस हज़ार नौ सौ सैन्तालीस के पार हो गया है। इतना ही नहीं महिलाओं के प्रति आपराधिक घटनाओं में हर वर्ष वृद्धि हो रही है। इस रिपोर्ट से यह भी पता चलता है कि हर आयु की महिला ऐसी घटनाओं की शिकार हो रही है। यहाँ तक कि बलात्कार जैसी घटनाओं की शिकार छोटी बच्चियों की भी एक बड़ी संख्या है। इस रिपोर्ट के अनुसार बच्चियों के साथ बलात्कार का आँकड़ा उन्नीस हज़ार सात सौ पैंसठ से आगे निकल गया है। कोमा में गई एक महिला का अस्पताल में बलात्कार भी इसी देश में घटित एक मामला है जो निश्चित रूप से विकृत मानसिकता की पराकाष्ठा है। देश में महिलाओं की ऐसी स्थिति के चलते महिलाओं पर केन्द्रित नीतियों, योजनाओं और कार्यक्रमों के क्रियान्वयन पर भी कई सवाल खड़े होते हैं। ऐसे में ‘महिला-उत्थान’, ‘नारी-सशक्तीकरण’ और ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे नारे भी खोखले ही लगते हैं।
थॉमसन-रॉयटर्स फ़ॉउण्डेशन ट्रस्टलॉ प्रो बोनो की एक रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के लिए असुरक्षा की दृष्टि से भारत चौथे स्थान पर है। यूनिसैफ़ की रिपोर्ट ‘हिडन इन प्लेन साइट’ में खुलासा किया गया है कि भारत में पन्द्रह से उन्नीस वर्ष की आयु की चौन्तीस प्रतिशत विवाहित महिलाएं ऐसी हैं जो अपने पति या साथी के हाथों शारीरिक या यौन-हिंसा का शिकार होती हैं। वहीं यूनाइटेड नेशन्स फ़ण्ड फ़ॉर पॉपुलेशन ऐक्टिविटीज़ और वॉशिंगटन स्थित संस्था इण्टरनैशनल सैण्टर रिसर्च ऑन विमैन की एक रिपोर्ट में सामने आया है कि भारत में दस में से छह पुरुषों ने अपनी पत्नी या प्रेमिका के साथ कभी न कभी हिंसक व्यवहार किया है।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आँकड़ों पर ध्यान दें तो देश की राजधानी दिल्ली को अपराध की राजधानी कहने में भी कोई अतिशयोक्ति नहीं। नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा वार्षिक सर्वेक्षण के आधार पर दिल्ली को महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित शहर घोषित किया गया है। दिल्ली में पिछले पाँच वर्षों के दौरान महिलाओं के साथ बलात्कार के मामलों में दो सौ सतत्तर प्रतिशत वृद्धि भी इस बात की पुष्टि करती है। यहाँ हर वर्ष पाँच सौ बहत्तर की औसत के आसपास ऐसे मामले दर्ज हो रहे हैं। वर्ष 2016 में यह आँकड़ा दो हज़ार एक सौ पचपन तक पहुँच चुका था। इनमें ऐसे मामलों की भी बहुत बड़ी संख्या है जिनके दर्ज होने के बाद एक लम्बा समय बीत जाने पर भी कोई नतीजा नहीं निकला है। सबसे ज़्यादा चिन्ताजनक बात तो यह है कि बर्बरता दर्शाती घटनाओं के बावजूद ऐसे मामलों में कमी आने की बजाय अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है। वर्ष 2012 के बहुचर्चित और झकझोरने वाले 23 वर्षीया निर्भया के साथ हुई बर्बरता के बाद ऐसे मामलों के थमने या कम होने की उम्मीद करना वाजिब ही था, लेकिन इसके बिल्कुल उलट ऐसे मामलों में आश्चर्यजनक वृद्धि हुई है। इस घटना के बाद बालात्कार के दर्ज मामलों में एक सौ बत्तीस प्रतिशत की वृद्धि निश्चित ही ऐसी घटनाओं को रोकने की दिशा में एक कारगर पहल किए जाने पर ज़ोर देती है। महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के अपराध में त्रिपुरा के बाद दिल्ली दूसरे स्थान पर है।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार के सबसे ज़्यादा मामले मध्य प्रदेश में दर्ज किए गए हैं। देश में दर्ज बलात्कार की कुल अठत्तीस हज़ार नौ सौ सैन्तालीस घटनाओं में से चार हज़ार आठ सौ बयासी घटनाएं इसी राज्य में घटित हुई हैं। यह राज्य महिलाओं के उत्पीड़न और बलात्कार के मामलों में तीन साल से सबसे आगे चल रहा है। इस राज्य में दूसरे अपराधों की अपेक्षा महिलाओं के प्रति 14.1 से 16.4 प्रतिशत ज़्यादा आपराधिक मामले सामने आए हैं। ऐसे मामलों में उत्तर प्रदेश दूसरे स्थान पर है। यहाँ बलात्कार के चार हज़ार आठ सौ सोलह मामले दर्ज किए गए हैं। इस सूची में तीसरा स्थान महाराष्ट्र का है जहाँ बलात्कार के चार हज़ार एक सौ नवासी मामले प्रकाश में आए हैं।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो ने महिलाओं के प्रति हो रहे अपराध के जो आँकड़े जारी किए हैं उनसे यह स्पष्ट हो जाता है कि थोड़े-बहुत अन्तर के साथ देश के लगभग सभी राज्यों में महिलाओं की स्थिति एक-सी है। इनमें कई राज्य ऐसे भी हैं जहाँ की सरकारें महिलाओं को भयमुक्त वातावरण के बड़े-बड़े दावे करती रही हैं, लेकिन महिलाओं के प्रति अपराध में दूसरे राज्यों से भी कहीं आगे हैं। इससे इन राज्यों की सरकारों के दावों की पोल तो खुलती है, लेकिन इनकी जवाबदेयी सुनिश्चित करवाने के लिए न तो केन्द्र सरकार की कोई इच्छा-शक्ति है और न ही न्याय-व्यवस्था की इनके विरुद्ध कार्रवाई की कोई पहल। ऐसे में केन्द्र सरकार के नियन्त्रण और न्याय-व्यवस्था के डण्डे के अभाव की परिणति आए दिन की महिलाओं के प्रति अपराध की ऐसी घटनाओं में देखी जाती है।
नैशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट राष्ट्रीय स्तर पर आदर्श राज्य का सब्ज़ बाग़ दिखाने वाले कई राजनीतिक दलों को भी कटघरे में खड़ा करती है। इस रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं के बलात्कार व उत्पीड़न में मध्य प्रदेश का पहले, उत्तर प्रदेश का दूसरे और महाराष्ट्र का तीसरे तथा महिलाओं के प्रति सभी प्रकार के अपराध में त्रिपुरा का पहले और दिल्ली का दूसरे स्थान पर होना; देश के बड़े राजनीतिक दलों की कथनी और करनी के अन्तर को बताने के साथ-साथ इनके दोहरे चरित्र को भी उजागर करता है। ऐसा इसलिए कि एक लम्बे समय तक देश के बड़े राजनीतिक दल ही इन राज्यों पर शासन करते रहे हैं। इन राज्यों में महिलाओं के प्रति लगातार बढ़ रहीं अपराध की घटनाएं महिलाओं के प्रति विभिन्न राजनीतिक दलों की संवेदनशीलता की पोल खोलने के साथ-साथ इस बात की भी पुष्टि करती हैं कि महिलाओं के प्रति विभिन्न राजनीतिक दलों की गम्भीरता चुनावों, राज्यसभा, लोकसभा और विधानसभा के भाषणों तक ही सीमित है।
देश में महिलाओं के प्रति हो रहीं अपराध की घटनाएं निश्चित ही देश में महिलाओं की स्थिति पर सवाल उठाती हैं। आए दिन महिलाओं को घरेलू हिंसा, बलात्कार, यौन-शोषण और दूसरे कई तरह के उत्पीड़न का दंश झेलना पड़ रहा है। यहाँ तक कि कई मामलों में उसे सामूहिक बलात्कार तक का शिकार होना पड़ रहा है। ऐसे में महिलाओं को सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में प्राथमिकता के आधार पर काम करने की ज़रूरत है। यूं तो महिलाओं की स्थिति पर चिन्तन की ज़रूरत बहुत पहले से ही महसूस की जाती रही है, लेकिन विभिन्न सरकारों; सम्बन्धित प्रशासन और विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा इस ओर कभी भी गम्भीरता न दिखाए जाने से देश में महिलाओं की असुरक्षा लगातार बढ़ रही है। ऐसे माहौल में महिला-आरक्षण से ज़्यादा महिलाओं के प्रति हो रही बर्बरता को रोकने के लिए दिशा निर्धारित करने पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। दरअसल महिलाओं को आरक्षण से कहीं ज़्यादा सुरक्षित व स्वच्छ वातावरण की ज़रूरत है। सरकारों द्वारा महिलाओं के लिए आरक्षण जैसा प्रलोभन एक राजनीतिक हथकण्डे के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। महिलाओं के लिए बनाई जा रही नीतियों का तब तक कोई अर्थ नहीं है जब तक कि उन्हें विकास के लिए सुरक्षित व स्वच्छ वातावरण नहीं दिया जाता। विभिन्न क्षेत्रों में राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं द्वारा किया जा रहा विकास इस बात की पुष्टि करता है कि महिलाएं विकास के मार्ग पर अग्रसर होने के लिए योग्य व सक्षम हैं। ज़रूरत है, तो सुरक्षित व स्वच्छ वातावरण की। ऐसे वातावरण के निर्माण से महिलाओं के विकास को सुनिश्चित करने के साथ-साथ लोगों की इनके प्रति अवधारणा और मानसिकता को भी बदलने में सहायता मिलेगी।
सरकार को इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि कोई भी महिला घरेलू हिंसा की शिकार न हो पाए और किसी भी महिला को घरेलू झगड़ों के कारण आत्महत्या न करनी पड़े। हालांकि महिलाओं के आत्महत्या करने के बहुत-से कारण भावनात्मक व निजी पाए गए हैं, लेकिन महिलाओं द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं के दूसरे कारणों का भी पता लगाना होगा। ऐसा इसलिए भी ज़रूरी है कि हर वर्ष की जा रही आत्महत्याओं में महिलाओं का आँकड़ा बहुत बड़ा है। यह बात चिन्ताजनक है कि हर वर्ष आत्महत्याओं के कुल मामलों में सतासठ प्रतिशत मामले महिला-आत्महत्या से सम्बन्धित होते हैं। इस तरह देखें तो आत्महत्या करने वाले हर पाँच लोगों में एक गृहिणी होती है। महिलाओं द्वारा की जा रही आत्महत्याओं के ये मामले हैरान करने वाले भी हैं। सरकार को पुलिस की छवि को सुधारने के भी प्रयास करने चाहिए। पुलिस की अच्छी छवि और सौहार्दपूर्ण व्यवहार से ज़्यादा से ज़्यादा महिलाओं को न्याय की लड़ाई लड़ने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा। सम्बन्धित क़ानून को प्रभावी ढंग से लागू करके महिलाओं के प्रति अपराध की घटनाओं पर निश्चित ही रोक लगाई जा सकती है।

 

 

 

 

अव्यवस्थित बसेरा
आधुनिकता की तेज़-रफ़्तार आँधी एक ऐतिहासिक शहर की प्राकृतिक सुन्दरता को बहा ले गई। बात रुकी नहीं और फिर शुरु हुआ इस सुन्दर ऐतिहासिक शहर के ‘चीर-हरण’ का सिलसिला…! कभी देश की राजधानी होने का गौरव हासिल कर चुका यह शहर देश की आज़ादी का भी गवाह है। देश की आज़ादी से लेकर देश के भविष्य से जुड़े कई अहम फ़ैसले यहीं लिए गए थे। यही वह ज़मीन भी है जहाँ कभी ‘बापू’ समेत पण्डित जवाहर लाल नेहरु और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे देश के शीर्ष नेताओं के कदम पड़े थे। इतना ही नहीं स्वतन्त्र भारत की नींव यहीं रखी गई थी। कहने की ज़रूरत नहीं कि बात देश की आज़ादी के गवाह पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला की हो रही है।
एक गौरवपूर्ण इतिहास निश्चित रूप से यहाँ रहने वाले किसी भी व्यक्ति को गदगद कर सकता है, लेकिन इसका दूसरा पक्ष भी है। इस शहर पर लोगों की आँखें कुछ ऐसी पड़ीं कि हर कोई इसे एक स्थाई आश्रय-स्थल के रूप में देखने लगा। इस तरह से शुरु हुई अन्धाधुन्ध भवन-निर्माण की होड़…! मौके का फ़ायदा उठाते हुए यहाँ के स्थाई निवासियों ने भी अपने क़ब्ज़े की ज़मीनें बेचकर चाँदी बटोरने का सिलसिला शुरु किया। उनकी इस जुगत में शिमला शहर छोटे-छोटे ‘प्लॉट्स’ में बंटकर एक ‘कंक्रीट का जंगल’ बनता चला गया। यह सिलसिला कभी शुरु हुआ तो तब तक नहीं रुका जब तक कि शिमला शहर का एक-एक इंच ज़मीन का टुकड़ा नहीं बिक गया।
शिमला के उन लोगों ने तो ज़मीनें बेची हीं जिनके पास एक लम्बे समय से ज़मीनें थीं, साथ ही उन लोगों ने भी वो ज़मीनें बेचीं जिन्हें भूमिहीन होने के कारण हिमाचल प्रदेश सरकार की ओर से ‘नौ-तोड़’ ज़मीन के रूप में ज़मीनें दी गई थीं। बात यहीं नहीं थमी और लोगों ने अपने क़ब्ज़े की ज़मीन के आसपास की ज़मीन पर अवैध रूप से क़ब्ज़ा कर उसे भी बेच डाला। इस तरह की कार्रवाइयों के यहाँ कई प्रकरण मिल जाएंगे। सबसे बड़ी विडम्बना तो यह है कि इस तरह के बहुत-से मामलों की जानकारी प्रदेश सरकार को भी रही है, लेकिन कभी भी दोषी लोगों के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई। सरकार कोई कार्रवाई करती भी तो कैसे जबकि सरकार में बैठे लोगों के लिए भवन-निर्माण एक धन्धे की तरह रहा! भवन-निर्माण के कारोबार से जुड़े ठेकेदारों को भवन-निर्माण की खुली छूट मिली रहे, इसके लिए सरकार ने यहाँ भवन-निर्माण के सम्बन्ध में कभी भी कोई ठोस नीति नहीं बनाई जिसका ख़ामियाज़ा यहाँ के आम लोग आज तक भुगत रहे हैं। ऐसी किसी भी नीति के अभाव में हिमाचल प्रदेश में तीस हज़ार से भी ज़्यादा भवन ऐसे हैं जो कई दशकों से नियमितीकरण की बाट जोह रहे हैं। इन भवनों को लोगों ने बनाया तो अपनी ही ज़मीन पर है, लेकिन फिर भी ये अवैध कहे जाते हैं। कई वर्षों से शिमला भू-माफ़िया के जाल में कुछ इस तरह फंसा है कि अब तो यहाँ तिल धरने की भी जगह बची नहीं है। भू-माफ़िया का यह कारोबार फैला, और अब तो स्थिति यह है कि शिमला शहर में जगह-जगह गाड़ियों और लोगों का जमघट-सा लगा रहता है।
वर्तमान समय में शिमला शहर में जितने लोग रह रहे हैं उतने लोगों को ध्यान में रखकर तो इसे बसाया ही नहीं गया था। आज़ादी से पहले अंग्रेज़ों द्वारा सिर्फ़ पच्चीस हज़ार लोगों के रहने की दृष्टि से शहर की संरचना तैयार की गई थी। आज तो स्थिति यह है कि इस शहर पर क्षमता से दस गुणा से भी ज़्यादा दबाव है। हिमाचल प्रदेश सरकार और नगर निगम शिमला द्वारा इसके साधन व संसाधन भी इतने विकसित नहीं किए गए हैं कि इस शहर में अढ़ाई-तीन लाख लोगों को रहने की सुविधाएं जुटाई जा सकें। यहाँ तक कि शहर की ज़्यादातर आबादी को पानी की आपूर्ति आज भी उसी स्रोत व माध्यम द्वारा की जा रही है जिन्हें कभी अंग्रेज़ों ने स्थापित किया था। नगर निगम शिमला की पानी की आपूर्ति की कुछ छिटपुट योजनाएं अवश्य हैं, लेकिन वो शुरु होने से पहले ही हाँफ़ जाती हैं। शिमला की सड़कों पर एक दिन में हज़ारों वाहन दौड़ते हैं, लेकिन शासन व प्रशासन द्वारा न तो सड़कों को ही विकसित किया गया है और न ही पार्किंग की पर्याप्त सुविधाएं ही उपलब्ध करवाई गई हैं। ऐसे में जगह-जगह घण्टों तक लगने वाले ट्रैफ़िक-जाम आम बात हैं।
शिमला शहर में ज़मीनें ज़्यादातर भवन-निर्माण के लिए ही बेची और ख़रीदी गईं। भवन-निर्माण का काम तो हुआ, लेकिन इतना अव्यवस्थित और बेतरतीब कि भवन रहने के लिए सुरक्षित स्थान की बजाय ऐसे ‘चैम्बर’ बनकर रह गए जहाँ घुटन-सी तो है ही, साथ ही असुरक्षा का ख़तरा भी बना हुआ है। यहाँ कई भवन तो ऐसे बनाए गए हैं कि ‘अब गिरा-अब गिरा’ की-सी हालत पैदा हो जाती है। भवन-निर्माण के सामान्य नियमों को ताक पर रखकर ऐसी-ऐसी जगह भवन-निर्माण किया गया है जो किसी भी लिहाज़ से सुरक्षित नहीं। पहाड़नुमा इन भवनों तक पहुँचने के लिए 75-80 अंश पर बनी सीढ़ियों से गुज़रना पड़ता है। ज़रा-सी भी चूक से किसी का पैर फिसला तो फिर उसका ख़ुदा-हाफ़िज़…!
शिमला को इस बदतर स्थिति में पहुँचने से बचाया जा सकता था अगर इस दिशा में कुछ किया गया होता। भवन-निर्माण पर रोक इसका एकमात्र हल था, लेकिन बीते समय में बात कुछ इस कदर बिगड़ी है कि बात बनना ज़रा मुश्किल है। यह कहना ग़लत न होगा कि पानी सिर से गु़ज़र चुका है। ज़मीन के सौदे कोई पर्दे के पीछे की बात नहीं थी। सभी के सामने यह कारोबार किया गया। ज़मीन की इस तिजारत को सरकार व प्रशासन के नाकारा रवैये की हवा मिली। अब नौबत यह है कि ऐतिहासिक शहर शिमला कभी गाड़ियों के धुएं में साँस लेता है तो कभी पानी की कमी से प्यासा ही रह जाता है। इस तरह ऐतिहासिक महत्व का शहर शिमला एक अव्यवस्थित बसेरा बनकर रह गया है।

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