उचित जल-प्रबन्धन की ज़रूरत

योजनाओं के उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी देश के लगभग पिचहत्तर प्रतिशत घरों में पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। देश में लगभग छह करोड़ साठ लाख लोग ज़रूरत से ज़्यादा फ़्लोराइड वाला जल पीने से और लगभग तीन करोड़ सतत्तर लाख लोग प्रति वर्ष दूषित जल के प्रयोग से बीमार पड़ जाते हैं। इनमें से लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है।

संजय ठाकुर
भारत के नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति चार बाल्टी स्वच्छ जल उपलब्ध करवाने के निर्धारित लक्ष्य का आधा भी जल उपलब्ध करवाने में सफल नहीं हो पाई हैं। ऐसी स्थिति भी तब है कि जब स्वच्छ जल उपलब्ध करवाने पर आधारित परियोजना की कुल धनराशि नवासी हज़ार नौ सौ छप्पन करोड़ रुपये का नब्बे प्रतिशत भाग ख़र्च किया जा चुका है। इस रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि घटिया प्रबन्धन के चलते सही निष्पादन के अभाव में सभी योजनाएं निर्धारित लक्ष्य से दूर होती जा रही हैं। योजनाओं के उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी देश के लगभग पिचहत्तर प्रतिशत घरों में पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। देश में लगभग छह करोड़ साठ लाख लोग ज़रूरत से ज़्यादा फ़्लोराइड वाला जल पीने से और लगभग तीन करोड़ सतत्तर लाख लोग प्रति वर्ष दूषित जल के प्रयोग से बीमार पड़ जाते हैं। इनमें से लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दूषित जल के प्रयोग से लगभग पन्द्रह लाख बच्चे आन्त्रशोथ के कारण मर जाते हैं। विभिन्न सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि दूषित जल से बीमार होने के कारण लगभग साढ़े सात करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद हो जाते हैं जिससे देश की लगभग उनतालीस अरब रुपये की आर्थिक हानि होती है। देश में सरकारी व प्रशासनिक लापरवाहियों की एक तस्वीर यह भी है कि देश के सत्रह लाख ग्रामीण क्षेत्रों में से अठत्तर प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में भी मुश्किल से ही ज़रूरत के लायक जल पहुँच पाता है। इस तरह से देखें तो देश के लगभग पैन्तालीस हज़ार गाँवों को ही नल या हैण्डपम्प के माध्यम से जल उपलब्ध करवाया जा सका है जबकि उन्नीस हज़ार से ज़्यादा गाँव ऐसे हैं जहाँ जल का कोई भी स्रोत नहीं है। प्रबन्धन के स्तर की सभी कमियों को दूर करके उचित जल-प्रबन्धन से निश्चित ही देश में जल-संकट की इस तस्वीर को बदला जा सकता है।
उचित जल-प्रबन्धन न होने और जल-प्रबन्धन की तकनीक के विकसित न होने से बर्बाद होते जल को बचाना हमेशा से ही मुश्किल रहा है। जल-प्रबन्धन को लेकर कोई ठोस नीति न होने से स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। देश में कई स्तरों पर बरती गई लापरवाहियों से यहाँ कभी भी जल-संचयन के प्रति सही समझ नहीं बनाई जा सकी जिस कारण इस दिशा में सरकारी स्तर पर यथोचित प्रयास नहीं किए गए। जल-संचयन को लेकर बरती जा रही लापरवाहियों से ही देश में वर्षा के रूप में भारी मात्रा में प्राप्त जल व्यर्थ ही चला जाता है। वर्षा के मामले में भारत दुनिया के बहुत-से देशों से बहुत आगे है। देश में औसत रूप से प्रतिवर्ष एक हज़ार एक सौ सत्तर मिलीमीटर वर्षा होती है जिससे कुल चार हज़ार घन मीटर जल उपलब्ध होता है। वर्षा की यह मात्रा वर्षा की दृष्टि से समृद्ध कई देशों से कहीं ज़्यादा है। चिन्ता तो इस बात की है कि देश में इस वर्षाजल का पन्द्रह प्रतिशत भाग ही उपयोग हो पाता है और शेष पिचासी प्रतिशत जल या तो बर्बाद हो जाता है, या फिर समुद्र में चला जाता है। जल की शेष आपूर्ति के लिए एक हज़ार आठ सौ उनहत्तर घन किलोमीटर भू-जलराशि पर निर्भर रहना पड़ता है जिसका मात्र एक हज़ार एक सौ बाईस घन किलोमीटर जल ही उपयोग में आता है। देश की लगभग पिचासी प्रतिशत जनसंख्या भू-जल पर ही निर्भर है जबकि जल पर आधारित दुनिया की विभिन्न संस्थाओं ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भू-गर्भ में अब जल नाममात्र ही रह गया है।
इस बात के महत्व को भी समझा जाना चाहिए कि देश में नदियों के रूप में ही इतनी जलराशि है कि यह कुल भौगौलिक क्षेत्रफल के लगभग बराबर है। देश की नदियों में बहने वाले लगभग एक हज़ार नौ सौ तेरह अरब साठ करोड़ घन मीटर जल की मात्रा का विस्तार देश के कुल बत्तीस लाख सत्तर हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर है जबकि यहाँ का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल बत्तीस लाख अस्सी हज़ार वर्ग किलोमीटर है। देश की नदियों में बहने वाला जल दुनिया की सभी नदियों में बहने वाले जल का 4.5 प्रतिशत है। ज़रूरत है तो इतनी बड़ी जलराशि के उचित उपयोग की। उचित जल-प्रबन्धन से इस अथाह जलराशि की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा को उपयोग में लाया जा सकता है। इसके बिल्कुल उलट देश में नदियों के जल के उचित उपयोग के सम्बन्ध में कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं किया गया जिस कारण जल-समृद्ध देश होने के बावजूद यहाँ स्वच्छ पेयजल और सिंचाई के लिए जल का बड़ा अभाव है। इतना ही नहीं इन नदियों के संरक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे उचित देखरेख के अभाव में बहुत-सी नदियों में जल की मात्रा या तो लगातार कम होती जा रही है, या फिर ये सूख रही हैं। एक शोध पर आधारित कुछ आँकड़ों के अनुसार देश के बिहार राज्य की नब्बे प्रतिशत नदियों में जल नहीं बचा है। पिछले तीन दशकों में कमला, घाघरा और बलान जैसी बड़ी नदियों सहित यहाँ की दो सौ पचास नदियां लुप्त हो गई हैं। यही स्थिति झारखण्ड राज्य की भी है जहाँ पिछले कुछ दशकों में ही अब तक एक सौ इकतालीस नदियां लुप्त हो चुकी हैं। इन नदियों के सूखने या लुप्त होने का एक बड़ा कारण इनका लगातार बढ़ता प्रदूषण है। देश की ज़्यादातर नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है जिस पर सरकार और प्रशासन का कोई नियन्त्रण नहीं है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के अनुसार देश की ऐसी प्रदूषित नदियों का आँकड़ा तीन सौ पार कर गया है जिनमें से दो सौ पच्चीस नदियों के जल की स्थिति बहुत ज़्यादा ख़राब है। इनमें दिल्ली से बहने वाली यमुना नदी का स्थान पहला है। नदियों के प्रदूषण के मामले में महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है जहाँ तरतालीस नदियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इसके बाद असम की अट्ठाईस, मध्यप्रदेश की इक्कीस, गुजरात की सत्रह, बंगाल की सत्रह, कर्नाटक की पन्द्रह, केरल व उत्तर प्रदेश की तेरह-तेरह, मणिपुर व उड़ीसा की बारह-बारह, मेघालय की दस और जम्मू-कश्मीर की नौ नदियां लगातार सूखती जा रही हैं। नदियों को प्रदूषित होने से बचाने के विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इस दिशा में कड़े क़ानून बनाकर उनका सख़्ती से पालन करवाना होगा। इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट नदियों में न जा पाएं।
देश में शहरी और ग्रामीण सभी क्षेत्रों में जल का अभाव है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि एक जल-समृद्ध देश होने के बावजूद सरकारी व प्रशासनिक स्तर की लापरवाहियों से यहाँ की एक बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। सरकार व प्रशासन की तरफ़ से न तो कभी जल-प्रबन्धन को महत्व दिया गया और न ही जल-संचयन और जल को बर्बाद होने से बचाने के लिए लोगों में जागरूकता लाने के प्रयास किए गए जिस कारण देश में बहुत-सा जल या तो व्यर्थ ही चला जाता है या बर्बाद कर दिया जाता है। यह स्थिति देश के सभी भागों में एक-सी है। देश के महानगरों, दूसरे शहरों में सत्रह से चौवालीस प्रतिशत जल पानी की टंकी में लगे वॉल्व के ख़राब होने के कारण बर्बाद हो जाता है। इसी तरह से विभिन्न पाइपलाइन से जलापूर्ति के समय भी जगह-जगह पर पाइप के क्षतिग्रस्त होने के कारण भी भारी मात्रा में जल के रिसाव से जल व्यर्थ ही चला जाता है। इसी तरह से दिनचर्या की विभिन्न ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जल का इस्तेमाल करके जल की बर्बादी की जाती है। यह उदाहरण भी कम दिलचस्प नहीं कि अकेले मुम्बई महानगर में ही प्रतिदिन पचास लाख लीटर जल वाहनों को साफ़ करने के लिए ख़र्च कर दिया जाता है। इस तरह से यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि जल-संकट वर्षा की कम मात्रा से कम और जल की बर्बादी से ज़्यादा पैदा होता है।
यह एक विडम्बना ही है कि दुनिया का एक जल-समृद्ध देश होने के बावजूद भारत में उचित जल-प्रबन्धन और योजनाओं के सही निष्पादन के अभाव में देश की एक बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। वास्तविकता तो यह है कि देश में जल का अभाव किसी मौसम-विशेष में ही नहीं होता बल्कि यह तो हर रोज़ की बात है। यह बात ज़रूर है कि गर्मियों में जल के अभाव की मार कुछ ज़्यादा पड़ती है। गर्मी के मौसम में भू-जल का स्तर गिरने से जल की कमी सामान्य-सी बात है। इस कमी को पूरा करना सरकार व प्रशासन का काम है जो उचित जल-प्रबन्धन से निश्चित ही किया जा सकता है। सरकार के सामने जहाँ देश में जलापूर्ति करना सरकार की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है वहीं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाना भी एक भारी चुनौती है। जल की कमी को दूर करने के लिए सरकार को जल-प्रबन्धन को लेकर कोई ठोस नीति बनाकर उसको प्रभावी ढंग से लागू करना होगा। उचित जल-प्रबन्धन से ही देश में उपलब्ध कुल जलराशि की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा को उपयोग में लाकर जल-संकट जैसी स्थिति से बचा जा सकता है।

You might also like

Leave A Reply

Your email address will not be published.