चींटियां

कुमार कृष्ण

धरती पर जहाँ-जहाँ होती है मिठास
वहाँ-वहाँ होती हैं चींटियां
चींटियां जानती हैं
उम्मीद का, भविष्य का व्याकरण
जानती हैं कुनबे की कला
मेहनत-मज़दूरी का गणित

काश! मिली होती चींटियों को भाषा
सुना पातीं अपनी पीड़ा
दिन-रात मशक्कत करते पाँवों की तकलीफ़
गा सकतीं कोई दुःख भरी ग़ज़ल

कितना अच्छा होता हम अनपढ़, बेज़ुबां चींटियों से सीख पाते
प्यार की, परिवार की सही परिभाषा
सीख पाते बोझ बाँटने की सीख
सीख पाते साथ-साथ रहना

चींटियां न हंसना जानती हैं न रोना
वे जानती हैं पूरी रात
प्यार का उत्सव मनाना
वे जानती हैं
हाथ का हुनर ही मिटा सकता है भूख
रोटी की तलाश में भटकती चींटियां
कभी नहीं लड़तीं पानी के लिए
शायद चींटियों को नहीं लगती कभी प्यास
सिखर दोपहर में
हम ढूँढ रहे होते हैं छाँव का छप्पर
चींटियां भाग रही होती हैं राशन की बोरियों के साथ

चींटियां जानती हैं जन्म से ही
धरती में मिठास छुपाने की कला
जानती हैं सुरंग खोदने की तकनीक
जानती हैं धरती के अन्दर का तापमान
जानती हैं परिवार पालने का मन्त्र
उनको आते हैं तरह-तरह जे घर बनाने
आते हैं तरह-तरह के घर बसाने
चींटियां जानती हैं
घर के अन्दर घर बनाने का हुनर

चींटियां हैं मज़दूरों की दुनिया
सबसे बड़ी दुनिया इस धरती पर
कल की चिन्ता में जीती हैं
अनगिनत सपनों के साथ
अगली बार आऊँ जब मैं इस धरती पर
मुझे सिखाना सबसे पहले
मिठास ढूँढने का मन्त्र
सिखाना घर को घर बनाने की कला
सिखाना प्यार की, परिवार की परिभाषा।

 

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