अन्न की अच्छी पैदावार और भुखमरी

यह एक विडम्बना ही है कि भारत में अन्न की अच्छी पैदावार के बावजूद कुप्रबन्धन के चलते बीस करोड़ से ज़्यादा लोग भुखमरी की चपेट में हैं। यह स्थिति भी तब है कि जब देश के प्रत्येक नागरिक को भोजन का अधिकार प्रदान करने के लिए देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 पारित किया गया है जिसे खाद्य अधिकार क़ानून के रूप में भी जाना जाता है। ऐसे क़ानून के रहते भी वास्तविकता यह है कि देश के लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना देश के सामने एक बड़ी समस्या बना हुआ है जिससे भुखमरी का ग्राफ बहुत बढ़ गया है।

संजय ठाकुर
यह एक विडम्बना ही है कि भारत में अन्न की अच्छी पैदावार के बावजूद कुप्रबन्धन के चलते बीस करोड़ से ज़्यादा लोग भुखमरी की चपेट में हैं। यह स्थिति भी तब है कि जब देश के प्रत्येक नागरिक को भोजन का अधिकार प्रदान करने के लिए देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 पारित किया गया है जिसे खाद्य अधिकार क़ानून के रूप में भी जाना जाता है। ऐसे क़ानून के रहते भी वास्तविकता यह है कि देश के लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना देश के सामने एक बड़ी समस्या बना हुआ है जिससे भुखमरी का ग्राफ बहुत बढ़ गया है। यही कारण है कि ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में भारत की रैंकिंग बुरी तरह गिरी है। वर्ष 2019 के लिए जारी ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में भारत 102वें स्थान पर है। यहाँ तक कि भारत से कहीं छोटे पड़ौसी देश नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान भी इस सूची में भारत से अच्छी स्थिति में हैं। इस सूची में नेपाल 73वें, बांग्लादेश 88वें, श्रीलंका 66वें और पाकिस्तान 94वें स्थान पर है। भारत का एक और पड़ौसी देश चीन तो भारत से कहीं ऊपर 25वें स्थान पर है। ग्लोबल हंगर इण्डैक्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया के सैन्तालीस ऐसे देशों में है जहाँ भुखमरी की स्थिति गम्भीर है।
ग्लोबल हंगर इण्डैक्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में छह से तेईस महीने के आयुवर्ग में सिर्फ़ 9.6 प्रतिशत बच्चों को ही न्यूनतम पौष्टिक आहार मिल पाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में लम्बाई के अनुपात में कम वज़न की दर (चाइल्ड वेस्टिंग रेट) भारत में 20.8 प्रतिशत है जो इस सूची के किसी भी देश से ज़्यादा है।
वर्ष 2014 के बाद ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में भारत की रैंकिंग जिस तेज़ी से गिरी है उससे एक बेहद चिन्ताजनक स्थिति पैदा होती है। ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में वर्ष 2014 में भारत 55वें, वर्ष 2015 में 80वें, वर्ष 2016 में 97वें, वर्ष 2017 में 100वें और वर्ष 2018 में 103वें स्थान पर था। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि भारत में पोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता और विकास की बड़ी-बड़ी बातें तो की जा रही हैं, लेकिन धरातल पर कुछ विशेष नहीं किया जा रहा है। भारत में भुखमरी की इस स्थिति को संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भी उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भुखमरी के शिकार पिचासी करोड़ तीस लाख लोगों में से लगभग तेईस करोड़ लोग भारत में ही हैं। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि विश्व की भुखमरी की शिकार लगभग एक-चौथाई आबादी भारत में ही है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में अन्न का पर्याप्त उत्पादन होता है, लेकिन ये अन्न सभी ज़रूरतमन्द लोगों तक नहीं पहुँचता।
भारत एक कृषि-प्रधान देश है जहाँ की साठ प्रतिशत से ज़्यादा आबादी की आजीविका ही कृषि पर निर्भर करती है। कृषि पर ऐसी निर्भरता यहाँ अन्न की अच्छी पैदावार का एक बड़ा कारण है। अन्न की ऐसी उपलब्धता के बावजूद देश में बढ़ती भुखमरी से यह बात स्पष्ट होती है कि देश के खेतों में अन्न तो उगाया जा रहा है, लेकिन वह लोगों तक नहीं पहुँच रहा है। ऐसे में यह बात जानना ज़रूरी है कि आख़िर वह अन्न जा कहाँ रहा है। कुल मिलाकर यही बात सामने निकलकर आती है कि वह अन्न या तो मुनाफ़ाखोरों और कालाबाज़ारियों के ताले में बन्द है या सरकार के गोदामों में सड़ रहा है, या फिर खेत से गोदामों या घरों तक पहुँचने से पहले ही बर्बाद हो रहा है। इसके अतिरिक्त देश में अन्न भोजन के रूप में भी बड़ी मात्रा में बर्बाद किया जा रहा है। एक तरफ़ तो देश की एक बड़ी आबादी के पास खाने के लिए अन्न नहीं है, तो दूसरी तरफ़ लाखों टन अन्न या तो सरकार के कुप्रबन्धन की भेंट तो चढ़ रहा है, या फिर कुछ सुविधा-सम्पन्न लोगों द्वारा बर्बाद किया जा रहा है। इस तरह हो रही अन्न की यह बर्बादी थोड़ी नहीं है। यह बर्बादी इतनी ज़्यादा है कि देश में करोड़ों भूखे पेटों को कई वर्षों तक आसानी से भरा जा सकता है।
खेत से लेकर गोदामों, दुकानों और घरों में पहुँचने तक अन्न की बर्बादी के विभिन्न चरण हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में बड़ी मात्रा में पैदा होने वाली फ़सल धान की बात करते हैं। प्रति क्विण्टल 3.82 किलोग्राम धान तो खेत में ही बर्बाद हो जाता है। इसके बाद प्रति क्विण्टल 1.2 किलोग्राम धान उचित भण्डारण के अभाव में बर्बाद हो जाता है। इसी तरह प्रति क्विण्टल 3.28 किलोग्राम गेंहूँ खेत में, लगभग आधा किलोग्राम थ्रैशिंग या भूसी निकालने के दौरान और लगभग एक किलोग्राम भण्डारण के समय बर्बाद हो जाता है। इस तरह प्रति क्विण्टल लगभग पाँच किलोग्राम धान और लगभग इतना ही गेंहूँ बर्बाद हो जाता है। एक जानकारी के अनुसार अन्न के खेत-खलिहान से बाज़ार तक पहुँचने में कुल उपज का लगभग चालीस प्रतिशत अन्न बर्बाद हो जाता है। इसमें से अन्न की पिचहत्तर प्रतिशत बर्बादी तो खेत-खलिहान में ही हो जाती है। इसके बाद भण्डारण की उचित व्यवस्था न होने से भी अन्न बर्बाद होता है। फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया (ऐफ़सीआई) के पास कुल दो सौ अस्सी लाख टन से ज़्यादा अन्न-भण्डारण की क्षमता है जिसमें से एक सौ तीस लाख टन अन्न-भण्डारण अपने गोदामों में और एक सौ पचास लाख टन से ज़्यादा अन्न-भण्डारण सरकार एवं निजी अभिकरणों से किराये पर लिए गोदामों में किया जाता है। एक तो अन्न-भण्डारण की यह क्षमता कम है, दूसरे इन गोदामों में अन्न को रखने की उचित व्यवस्था भी नहीं है जिस कारण हर वर्ष लाखों टन अन्न सड़ जाता है। इस प्रकार उचित रख-रखाव के अभाव में बर्बाद हो रहे अन्न की तरफ़ सरकार द्वारा कभी भी गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया।
विभिन्न स्तरों पर हो रही अन्न की बर्बादी का सीधा असर इसके मूल्य पर पड़ता है जिसका ख़ामियाजा लोगों को अन्न की ज़्यादा कीमत चुकाकर भुगतना पड़ता है। इस सम्बन्ध में सरकार और उन सभी सरकारी अभिकरणों पर अंगुलियां उठती हैं जिन पर अन्न को खेतों से गोदामों, दुकानों एवं घरों तक पहुँचाने और भण्डारण की ज़िम्मेदारी है। हालांकि अन्न की इस बर्बादी को कम करने के लिए केन्द्र सरकार ने नैशनल पॉलिसी ऑन हैण्डलिंग ऐण्ड स्टोरेज ऑफ़ फ़ूडग्रेन्स नाम से एक नीति बनाई है, लेकिन अन्न की बर्बादी को रोकने के आशाजनक परिणाम नहीं निकले हैं।
अन्न के साथ-साथ बर्बाद किए जा रहे भोजन को भी बचाने की ज़रूरत है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय लोगों द्वारा प्रतिदिन दो सौ चौवालीस करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद कर दिया जाता है। इस तरह भारत में प्रतिवर्ष लगभग नवासी हज़ार साठ करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद हो जाता है जिससे बीस करोड़ से ज़्यादा लोगों के पेट भरे जा सकते हैं।
देश में बढ़ती आर्थिक असमानता से भुखमरी की समस्या और भी गम्भीर रूप धारण कर रही है। चिन्ता तो इस बात की है कि सरकार आर्थिक असमानता को कम करने के प्रति गम्भीर नहीं है। यही कारण है कि आर्थिक असमानता को कम करने के अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर भारत की स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। ब्रिटेन स्थित चैरिटी ऑक्सफ़ैम इण्टरनैशनल द्वारा आर्थिक असमानता को कम करने के प्रतिबद्धता सूचकांक में भारत को एक सौ सतावन देशों की सूची में 147वें स्थान पर रखकर बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति के रूप में चिन्हित किया गया है। देश की ज़्यादातर नीतियां उद्योगपतियों पर ही केन्द्रित हैं जिस कारण आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में गिने-चुने लोगों का ही विकास हो रहा है और देश की एक बड़ी जनसंख्या दो वक़्त की रोटी से भी वंचित है।
सरकार द्वारा देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की तरफ़ भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिस कारण भारत में प्रति व्यक्ति आय दुनिया के ज़्यादातर देशों से बहुत कम है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार प्रति व्यक्ति आय की दर के मामले में भारत दो सौ देशों की सूची में 126वें स्थान पर है।
देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए भोजन को सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। भोजन की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए वैसे तो, भारत में अन्त्योदय अन्न योजना, अन्नपूर्णा योजना, राशन वितरण प्रणाली और मिड डे मील योजना जैसी कई योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर की ख़ामियों से देश की एक बड़ी आबादी आज भी अन्न से वंचित है। वह अन्न जिसे लोगों की भूख मिटानी थी, सरकार के कुप्रबन्धन के चलते बर्बाद हो रहा है। अन्न की बर्बादी का यह आँकड़ा बहुत बड़ा है। एक बार देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के गोदामों में सड़ रहे अन्न को देश के ग़रीब लोगों में वितरित करने के लिए कहा था, लेकिन उचित कार्य-प्रणाली के अभाव में सरकार ने ऐसा करने में असमर्थता जताई थी। सरकार को बर्बाद हो रहे अन्न को भूखे लोगों तक पहुँचाने की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके साथ ही हर पेट को भोजन उपलब्ध करवाने पर केन्द्रित सशक्त नीति बनाकर उसे उद्देश्यपरक कार्यरूप देना होगा ताकि भुखमरी से निपटने में प्रभावी प्रयास किए जा सकें।

 

 

 

उचित जल-प्रबन्धन की ज़रूरत
भारत के नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति चार बाल्टी स्वच्छ जल उपलब्ध करवाने के निर्धारित लक्ष्य का आधा भी जल उपलब्ध करवाने में सफल नहीं हो पाई हैं। ऐसी स्थिति भी तब है कि जब स्वच्छ जल उपलब्ध करवाने पर आधारित परियोजना की कुल धनराशि नवासी हज़ार नौ सौ छप्पन करोड़ रुपये का नब्बे प्रतिशत भाग ख़र्च किया जा चुका है। इस रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि घटिया प्रबन्धन के चलते सही निष्पादन के अभाव में सभी योजनाएं निर्धारित लक्ष्य से दूर होती जा रही हैं। योजनाओं के उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी देश के लगभग पिचहत्तर प्रतिशत घरों में पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। देश में लगभग छह करोड़ साठ लाख लोग ज़रूरत से ज़्यादा फ़्लोराइड वाला जल पीने से और लगभग तीन करोड़ सतत्तर लाख लोग प्रति वर्ष दूषित जल के प्रयोग से बीमार पड़ जाते हैं। इनमें से लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दूषित जल के प्रयोग से लगभग पन्द्रह लाख बच्चे आन्त्रशोथ के कारण मर जाते हैं। विभिन्न सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि दूषित जल से बीमार होने के कारण लगभग साढ़े सात करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद हो जाते हैं जिससे देश की लगभग उनतालीस अरब रुपये की आर्थिक हानि होती है। देश में सरकारी व प्रशासनिक लापरवाहियों की एक तस्वीर यह भी है कि देश के सत्रह लाख ग्रामीण क्षेत्रों में से अठत्तर प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में भी मुश्किल से ही ज़रूरत के लायक जल पहुँच पाता है। इस तरह से देखें तो देश के लगभग पैन्तालीस हज़ार गाँवों को ही नल या हैण्डपम्प के माध्यम से जल उपलब्ध करवाया जा सका है जबकि उन्नीस हज़ार से ज़्यादा गाँव ऐसे हैं जहाँ जल का कोई भी स्रोत नहीं है। प्रबन्धन के स्तर की सभी कमियों को दूर करके उचित जल-प्रबन्धन से निश्चित ही देश में जल-संकट की इस तस्वीर को बदला जा सकता है।
उचित जल-प्रबन्धन न होने और जल-प्रबन्धन की तकनीक के विकसित न होने से बर्बाद होते जल को बचाना हमेशा से ही मुश्किल रहा है। जल-प्रबन्धन को लेकर कोई ठोस नीति न होने से स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। देश में कई स्तरों पर बरती गई लापरवाहियों से यहाँ कभी भी जल-संचयन के प्रति सही समझ नहीं बनाई जा सकी जिस कारण इस दिशा में सरकारी स्तर पर यथोचित प्रयास नहीं किए गए। जल-संचयन को लेकर बरती जा रही लापरवाहियों से ही देश में वर्षा के रूप में भारी मात्रा में प्राप्त जल व्यर्थ ही चला जाता है। वर्षा के मामले में भारत दुनिया के बहुत-से देशों से बहुत आगे है। देश में औसत रूप से प्रतिवर्ष एक हज़ार एक सौ सत्तर मिलीमीटर वर्षा होती है जिससे कुल चार हज़ार घन मीटर जल उपलब्ध होता है। वर्षा की यह मात्रा वर्षा की दृष्टि से समृद्ध कई देशों से कहीं ज़्यादा है। चिन्ता तो इस बात की है कि देश में इस वर्षाजल का पन्द्रह प्रतिशत भाग ही उपयोग हो पाता है और शेष पिचासी प्रतिशत जल या तो बर्बाद हो जाता है, या फिर समुद्र में चला जाता है। जल की शेष आपूर्ति के लिए एक हज़ार आठ सौ उनहत्तर घन किलोमीटर भू-जलराशि पर निर्भर रहना पड़ता है जिसका मात्र एक हज़ार एक सौ बाईस घन किलोमीटर जल ही उपयोग में आता है। देश की लगभग पिचासी प्रतिशत जनसंख्या भू-जल पर ही निर्भर है जबकि जल पर आधारित दुनिया की विभिन्न संस्थाओं ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भू-गर्भ में अब जल नाममात्र ही रह गया है।
इस बात के महत्व को भी समझा जाना चाहिए कि देश में नदियों के रूप में ही इतनी जलराशि है कि यह कुल भौगौलिक क्षेत्रफल के लगभग बराबर है। देश की नदियों में बहने वाले लगभग एक हज़ार नौ सौ तेरह अरब साठ करोड़ घन मीटर जल की मात्रा का विस्तार देश के कुल बत्तीस लाख सत्तर हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर है जबकि यहाँ का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल बत्तीस लाख अस्सी हज़ार वर्ग किलोमीटर है। देश की नदियों में बहने वाला जल दुनिया की सभी नदियों में बहने वाले जल का 4.5 प्रतिशत है। ज़रूरत है तो इतनी बड़ी जलराशि के उचित उपयोग की। उचित जल-प्रबन्धन से इस अथाह जलराशि की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा को उपयोग में लाया जा सकता है। इसके बिल्कुल उलट देश में नदियों के जल के उचित उपयोग के सम्बन्ध में कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं किया गया जिस कारण जल-समृद्ध देश होने के बावजूद यहाँ स्वच्छ पेयजल और सिंचाई के लिए जल का बड़ा अभाव है। इतना ही नहीं इन नदियों के संरक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे उचित देखरेख के अभाव में बहुत-सी नदियों में जल की मात्रा या तो लगातार कम होती जा रही है, या फिर ये सूख रही हैं। एक शोध पर आधारित कुछ आँकड़ों के अनुसार देश के बिहार राज्य की नब्बे प्रतिशत नदियों में जल नहीं बचा है। पिछले तीन दशकों में कमला, घाघरा और बलान जैसी बड़ी नदियों सहित यहाँ की दो सौ पचास नदियां लुप्त हो गई हैं। यही स्थिति झारखण्ड राज्य की भी है जहाँ पिछले कुछ दशकों में ही अब तक एक सौ इकतालीस नदियां लुप्त हो चुकी हैं। इन नदियों के सूखने या लुप्त होने का एक बड़ा कारण इनका लगातार बढ़ता प्रदूषण है। देश की ज़्यादातर नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है जिस पर सरकार और प्रशासन का कोई नियन्त्रण नहीं है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के अनुसार देश की ऐसी प्रदूषित नदियों का आँकड़ा तीन सौ पार कर गया है जिनमें से दो सौ पच्चीस नदियों के जल की स्थिति बहुत ज़्यादा ख़राब है। इनमें दिल्ली से बहने वाली यमुना नदी का स्थान पहला है। नदियों के प्रदूषण के मामले में महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है जहाँ तरतालीस नदियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इसके बाद असम की अट्ठाईस, मध्यप्रदेश की इक्कीस, गुजरात की सत्रह, बंगाल की सत्रह, कर्नाटक की पन्द्रह, केरल व उत्तर प्रदेश की तेरह-तेरह, मणिपुर व उड़ीसा की बारह-बारह, मेघालय की दस और जम्मू-कश्मीर की नौ नदियां लगातार सूखती जा रही हैं। नदियों को प्रदूषित होने से बचाने के विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इस दिशा में कड़े क़ानून बनाकर उनका सख़्ती से पालन करवाना होगा। इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट नदियों में न जा पाएं।
देश में शहरी और ग्रामीण सभी क्षेत्रों में जल का अभाव है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि एक जल-समृद्ध देश होने के बावजूद सरकारी व प्रशासनिक स्तर की लापरवाहियों से यहाँ की एक बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। सरकार व प्रशासन की तरफ़ से न तो कभी जल-प्रबन्धन को महत्व दिया गया और न ही जल-संचयन और जल को बर्बाद होने से बचाने के लिए लोगों में जागरूकता लाने के प्रयास किए गए जिस कारण देश में बहुत-सा जल या तो व्यर्थ ही चला जाता है या बर्बाद कर दिया जाता है। यह स्थिति देश के सभी भागों में एक-सी है। देश के महानगरों, दूसरे शहरों में सत्रह से चौवालीस प्रतिशत जल पानी की टंकी में लगे वॉल्व के ख़राब होने के कारण बर्बाद हो जाता है। इसी तरह से विभिन्न पाइपलाइन से जलापूर्ति के समय भी जगह-जगह पर पाइप के क्षतिग्रस्त होने के कारण भी भारी मात्रा में जल के रिसाव से जल व्यर्थ ही चला जाता है। इसी तरह से दिनचर्या की विभिन्न ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जल का इस्तेमाल करके जल की बर्बादी की जाती है। यह उदाहरण भी कम दिलचस्प नहीं कि अकेले मुम्बई महानगर में ही प्रतिदिन पचास लाख लीटर जल वाहनों को साफ़ करने के लिए ख़र्च कर दिया जाता है। इस तरह से यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि जल-संकट वर्षा की कम मात्रा से कम और जल की बर्बादी से ज़्यादा पैदा होता है।
यह एक विडम्बना ही है कि दुनिया का एक जल-समृद्ध देश होने के बावजूद भारत में उचित जल-प्रबन्धन और योजनाओं के सही निष्पादन के अभाव में देश की एक बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। वास्तविकता तो यह है कि देश में जल का अभाव किसी मौसम-विशेष में ही नहीं होता बल्कि यह तो हर रोज़ की बात है। यह बात ज़रूर है कि गर्मियों में जल के अभाव की मार कुछ ज़्यादा पड़ती है। गर्मी के मौसम में भू-जल का स्तर गिरने से जल की कमी सामान्य-सी बात है। इस कमी को पूरा करना सरकार व प्रशासन का काम है जो उचित जल-प्रबन्धन से निश्चित ही किया जा सकता है। सरकार के सामने जहाँ देश में जलापूर्ति करना सरकार की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है वहीं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाना भी एक भारी चुनौती है। जल की कमी को दूर करने के लिए सरकार को जल-प्रबन्धन को लेकर कोई ठोस नीति बनाकर उसको प्रभावी ढंग से लागू करना होगा। उचित जल-प्रबन्धन से ही देश में उपलब्ध कुल जलराशि की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा को उपयोग में लाकर जल-संकट जैसी स्थिति से बचा जा सकता है।

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