बढ़ते वैश्विक ऋण के निहितार्थ

संजय ठाकुर
विश्व भर में उभरी वर्तमान परिस्थितियों के चलते वर्ष 2020 के अन्त तक वैश्विक अर्थव्यवस्था एक प्रतिशत तक सिकुड़ सकती है। संयुक्त राष्ट्र आर्थिक एवं सामाजिक मामलों के विभाग ने आर्थिक संकट के और भी गहराने की सम्भावना जताई है। ऐसे में विश्व के विभिन्न देशों पर बढ़ते ऋण के निहितार्थ जानना बहुत ज़रूरी हो जाता है। विश्व पर बढ़ते ऋण के भार की स्थिति इतनी गम्भीर है कि ऋण की यह धनराशि विश्व के कुल उत्पादन के दुगुना से भी ज़्यादा है। वर्तमान समय में अर्थव्यवस्था के बहुत बुरे दौर से गुज़रने के कारण ऋण की स्थिति और भी चिन्ताजनक हो जाती है। विश्व भर की अर्थव्यवस्थाओं के थमने से व्यापार व निवेश बुरी तरह प्रभावित हुआ है। इस समय विश्व की एक बड़ी जनसंख्या संसाधन न होने से बड़े वित्तीय संकट का सामना कर रही है। यह स्थिति विकसित और विकासशील, दोनों तरह के देशों में है। विकसित देशों में भी उपभोक्ताओं द्वारा किए जाने वाले ख़र्च में तेज़ी से गिरावट आई है जिसका प्रभाव विकासशील देशों से उपभोक्ता-वस्तुओं के आयात पर पड़ेगा। वैश्विक विनिर्माण उत्पादन में गिरावट आने से वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला भी बुरी तरह प्रभावित होगी।
इनस्टिच्यूट ऑफ़ इण्टरनैशनल फ़ाइनैंस की एक रिपोर्ट के अनुसार वैश्विक ऋण दो सौ पचपन ट्रिलियन अमरीकी डॉलर को पार कर गया है। वैश्विक ऋण में भारी वृद्धि का कारण चीन और अमरीका द्वारा बड़े पैमाने पर ऋण लेना है। विश्व भर के कुल ऋण का साठ प्रतिशत भाग इन्हीं दो देशों का है। अमरीका और चीन के अतिरिक्त इटली, लेबनान, अर्जेनटीना, ब्राज़ील, दक्षिण अफ़्रीका और यूनान भी ज़्यादा ऋण लेने वाले देशों की सूची में हैं। वैश्विक ऋण के बढ़ने का एक कारण वैश्विक बॉण्ड बाज़ार पर निर्भरता भी है। इनस्टिच्यूट ऑफ़ इण्टरनैशनल फ़ाइनैंस के अनुसार वर्ष 2009 में वैश्विक बॉण्ड बाज़ार सत्तासी ट्रिलियन अमरीकी डॉलर था जो वर्ष 2019 में एक सौ पन्द्रह ट्रिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुँच चुका था। इस दृष्टि से देखें तो विश्व की सात अरब सत्तर करोड़ की कुल जनसंख्या में प्रत्येक व्यक्ति पर बत्तीस हज़ार पाँच सौ पचास अमरीकी डॉलर अर्थात चौबीस लाख इकतालीस हज़ार दो सौ पचास रुपये से ज़्यादा के ऋण का भार है।
यह एक बहुत ही चिन्ता का विषय है कि कुल वैश्विक ऋण में से वाणिज्यिक ऋण का एक बड़ा भाग संकट में है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष पहले ही आगाह कर चुका है कि विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों में लगभग चालीस प्रतिशत अर्थात उन्नीस ट्रिलियन अमरीकी डॉलर का वाणिज्यिक ऋण संकट वाला है। इस संकट वाले ऋण का बड़ा भाग अमरीका, चीन, जर्मनी, ब्रिटेन, फ़्राँस और इटली के पास है।
भारत पर विदेशी ऋण में भी लगातार वृद्धि हो रही है। भारतीय रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत पर कुल विदेशी ऋण पाँच सौ तरतालीस अरब अमरीकी डॉलर का आँकड़ा पार कर चुका है। इस ऋण में एक वर्ष के अन्तराल में तेरह अरब सत्तर करोड़ अमरीकी डॉलर की वृद्धि हुई है। ऋण की यह राशि सकल घरेलू उत्पाद की 19.7 प्रतिशत है। भारत पर कुल विदेशी ऋण का आकलन करें तो भारत सरकार को प्रतिवर्ष लाखों करोड़ रुपये सिर्फ़ ऋण के ब्याज के रूप में ही ख़र्च करने पड़ते हैं। वर्ष 2019-2020 के बजट में इस ऋण के ब्याज के रूप में सत्ताईस लाख अस्सी हज़ार करोड़ रुपये की धनराशि ख़र्च किए जाने का प्रावधान किया गया था। इससे पिछले बजट में ऋण के ब्याज को चुकाने के लिए पाँच लाख पिचहत्तर हज़ार करोड़ रुपये की धनराशि निर्धारित की गई थी।
भारत पर कुल ऋण में 37.3 प्रतिशत का एक बड़ा भाग वाणिज्यिक ऋण का है। इसके अतिरिक्त छब्बीस प्रतिशत भाग अनिवासी भारतीयों के जमा धन का है। ऋण की शेष राशि में 17.2 प्रतिशत अल्पावधिक ऋण, 11.1 प्रतिशत बहुपक्षीय ऋण, 2.2 प्रतिशत निर्यात-ऋण और 1.1 प्रतिशत अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से लिया गया ऋण है। इस कुल ऋण का आकलन करें तो पता चलता है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति पर पच्चीस हज़ार दो सौ इक्यावन रुपये का औसत ऋण है। ऋण का यह भार इसी तरह बढ़ता रहा तो ऋण को चुकाने के लिए भी ऋण लेने की स्थिति भी पैदा हो सकती है। इस समय भारत सरकार को हर वर्ष अपनी कुल आय का उन्नीस प्रतिशत भाग ऋण के ब्याज के रूप में चुकाना पड़ता है जो कि शिक्षा व स्वास्थ्य पर छह प्रतिशत से भी कम ख़र्च की जाने वाली धनराशि से भी कहीं ज़्यादा है।
भारतीय अर्थव्यवस्था में एक बड़ा भाग देश के तीन राज्यों महाराष्ट्र, तमिल नाडु और कर्नाटक का है। अगर भारत के सबसे समृद्ध इन तीन राज्यों की अर्थव्यवस्था के आकार को देखें तो यह देश के छब्बीस राज्यों के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर आता है। देश की अर्थव्यवस्था में इन तीनों राज्यों का कुल योगदान सात सौ अस्सी अरब डॉलर है। वर्तमान परिस्थितियों में ये राज्य आर्थिक दृष्टि से देश के सबसे ज़्यादा प्रभावित राज्यों में हैं जिसका प्रभाव देश की समूची अर्थव्यवस्था पर पड़ना निश्चित है। ऐसे में देश पर वैश्विक ऋण का भार भी बढ़ेगा।
देश की प्रति व्यक्ति आय वर्ष 2019 तक दस हज़ार पाँच सौ चौन्तीस रुपये मासिक अर्थात एक लाख छब्बीस हज़ार चार सौ आठ रुपये वार्षिक थी। वित्तीय वर्ष 2020-2021 में राष्ट्रीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय के कम होने का अनुमान लगाया गया है। भारतीय स्टेट बैंक की एक शोध-रिपोर्ट ‘इकोरैप’ के अनुसार वित्तीय वर्ष 2020-2021 के दौरान अखिल भारतीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय 5.4 प्रतिशत कम हो जाएगी। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि चालू वित्तीय वर्ष के दौरान महाराष्ट्र, गुजरात, तेलंगाना और तमिल नाडु जैसे धनी राज्यों की प्रति व्यक्ति आय में 10 से 12 प्रतिशत तक की गिरावट आने का अनुमान है। दिल्ली में प्रति व्यक्ति आय में 15.4 प्रतिशत की गिरावट और चण्डीगढ़ में 13.9 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान है जो अखिल भारतीय स्तर पर प्रति व्यक्ति आय में आने वाली 5.4 प्रतिशत की गिरावट की तुलना में लगभग तीन गुणा ज़्यादा है। इस रिपोर्ट के अनुसार कुल मिलाकर आठ राज्यों और संघ शासित प्रदेशों की प्रति व्यक्ति आय में इस दौरान दहाई के अंक में गिरावट आने का अनुमान है। इन राज्यों का देश के सकल घरेलू उत्पाद में सैन्तालीस प्रतिशत तक का योगदान है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि जिन राज्यों की प्रति व्यक्ति आय अखिल भारतीय स्तर की औसत से ऊँची है ऐसे धनी राज्य प्रति व्यक्ति आय के मामले में ज़्यादा प्रभावित होंगे। इन रिपोर्ट के अनुसार मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, बिहार, और उड़ीसा जैसे राज्यों में, जहाँ प्रति व्यक्ति आय राष्ट्रीय औसत से कम है, प्रति व्यक्ति आय में आठ प्रतिशत की गिरावट आने का अनुमान है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि प्रति व्यक्ति आय में आने वाली यह गिरावट वर्तमान मूल्यों पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद में आने वाली 3.8 प्रतिशत की गिरावट से ऊँची है। इस रिपोर्ट में वित्तीय वर्ष 2020-2021 के दौरान सकल घरेलू उत्पाद में 6.8 प्रतिशत की गिरावट का अनुमान लगाया गया है।
उभरे परिदृश्य से पहले भी भारतीय अर्थव्यवस्था एक बहुत बुरे दौर से गुज़र रही थी। वर्तमान परिस्थितियों से पहले भारत का नाममात्र सकल घरेलू उत्पाद पैन्तालीस वर्ष और वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद ग्यारह वर्ष के न्यूनतम स्तर पर था। बेरोज़गारी की दर पिछले पैन्तालीस वर्ष में सबसे ज़्यादा थी। ग्रामीण स्तर पर माँग पिछले चालीस वर्ष के न्यूनतम स्तर पर थी। ऐसे में आर्थिक संकट का उभरे परिदृश्य के सन्दर्भ में ही नहीं बल्कि एक समग्र आकलन किया जाना चाहिए। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक और मूडीज़ इन्वैस्टर्स सर्विस जैसी संस्थाओं ने भारत की आर्थिक वृद्धि दर के अनुमान में पहले ही एक बड़ी कटौती कर दी थी।
वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़े बुरे प्रभाव को वित्तीय स्फूर्ति प्रदान करने वाले नीतिगत उपायों को अपनाकर कम किया जा सकता है। ऐसे उपायों को जल्द से जल्द अपनाने की ज़रूरत है। इस समय विभिन्न देशों की सरकारों का ध्यान अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने और समाज के सबसे कमज़ोर तबके की आर्थिक संकट से रक्षा करने पर केन्द्रित होना चाहिए। वैश्विक आर्थिक संकट की दृष्टि से दो पहलुओं पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। पहला, किसानों; असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मज़दूरों एवं शहरों में छोटा-मोटा काम करके आजीविका चलाने वाले लोगों से सम्बन्धित अर्थव्यवस्था की सबसे कमज़ोर जनसंख्या और दूसरा, पूंजी और ग़ैर-पूंजी वस्तुओं के उत्पादन से सम्बन्धित क्षेत्र जिसे अर्थव्यवस्था में उत्पादक कहा जाता है। विश्व भर की सरकारों को इन दोनों ही पहलुओं पर काम करना होगा। इसके अतिरिक्त मध्यम वर्ग पर भी ध्यान देना होगा क्योंकि अर्थव्यवस्था के संकट में यह वर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित होता है और सरकारों द्वारा जारी किए जाने वाले राहत-पैकेज में इसका कहीं नाम नहीं आता। भारत में आर्थिक समस्या से पार पाने के लिए वर्तमान परिस्थितियों से हटकर पिछले दो वर्ष से चली आ रही आर्थिक सुस्ती को आधार बनाया जाना चाहिए। इस बात पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए कि देश में वर्तमान समय के आर्थिक संकट से पहले ही एक बड़ी माँग-आधारित आर्थिक सुस्ती आ चुकी थी और देश अब आपूर्ति-आधारित आर्थिक सुस्ती का भी सामना कर रहा है।

You might also like

Leave A Reply

Your email address will not be published.