मुक्तक मुक्तक संजय उवाच फरवरी 7, 2019 अनन्त आलोक नदी कोई समन्दर की अदाओं पर मचल बैठी, पकड़ दो हाथों से अपनी ही धारा को बदल बैठी। इधर बैठी उधर बैठी अचल बैठी उछल बैठी, सम्भल नहीं पा रही जब से मुहब्बत में फिसल बैठी।