गिरती अर्थव्यवस्था और ग़रीबी की चुनौती

आर्थिक विकास दर के लगातार गिरने का प्रभाव जहाँ देश में खपत, बचत, औद्योगिक उत्पादन, निवेश, नकदी व कर्ज़ की माँग में कमी और बेरोज़गारी के बढ़ने के रूप में स्पष्ट देखा जा रहा है वहीं इससे देश की विभिन्न विकासात्मक गतिविधियां भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं जिससे ग़रीबी से निपटने की चुनौती निश्चित ही बढ़ गई है।

संजय ठाकुर

भारत की गिरती अर्थव्यवस्था ने देश के सैन्तीस करोड़ से ज़्यादा ग़रीब लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने की चुनौती को बढ़ा दिया है। चालू वित्तीय वर्ष की तीसरी तिमाही में देश की आर्थिक विकास दर 4.5 प्रतिशत तक गिर गई है जो चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में पाँच प्रतिशत थी। वर्ष 2018-19 की तीसरी तिमाही में आर्थिक विकास दर सात प्रतिशत थी। आर्थिक विकास दर के तिमाही-दर-तिमाही गिरने के बाद अब भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने चालू वित्तीय वर्ष के लिए अपनी अनुमानित आर्थिक विकास दर को 6.1 प्रतिशत से घटाकर पाँच प्रतिशत कर दिया है। आरबीआई के बाद एशियाई विकास बैंक (एडीबी) ने भी वित्त वर्ष 2019-20 के लिए भारत की आर्थिक विकास दर का अपना अनुमान 6.5 प्रतिशत से घटाकर 5.1 प्रतिशत कर दिया है। आर्थिक विकास दर के लगातार गिरने का प्रभाव जहाँ देश में खपत, बचत, औद्योगिक उत्पादन, निवेश, नकदी व कर्ज़ की माँग में कमी और बेरोज़गारी के बढ़ने के रूप में स्पष्ट देखा जा रहा है वहीं इससे देश की विभिन्न विकासात्मक गतिविधियां भी बुरी तरह प्रभावित हुई हैं जिससे ग़रीबी से निपटने की चुनौती निश्चित ही बढ़ गई है। वर्तमान समय में भारत की अर्थव्यवस्था को विश्व की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में तेज़ी से विकसित होती अर्थव्यवस्था के रूप में देखा जा रहा है, लेकिन आर्थिक विकास की इस गति को बनाए रखने के लिए आर्थिक सुधार की दिशा में गम्भीर प्रयास किए जाने की ज़रूरत है ताकि आर्थिक विकास का मार्ग अवरुद्ध होने से रोका जा सके। वर्ष 2024-25 तक भारत की अर्थव्यवस्था का आकार पाँच ट्रिलियन डॉलर करने के प्रधानमन्त्री द्वारा निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए देश की आर्थिक समीक्षा में आर्थिक विकास दर निरन्तर आठ प्रतिशत रखने की बात कही गई थी जिसे वर्तमान आर्थिक विकास दर के चलते प्राप्त करना बहुत मुश्किल है।
आर्थिक विकास में आई गिरावट से सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) की वैश्विक रैंकिंग में भारतीय अर्थव्यवस्था पाँचवें स्थान से गिरकर सातवें स्थान पर पहुँच गई है। विश्व बैंक द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार भारत आर्थिक विकास दर के मामले में अमरीका, चीन, जापान, जर्मनी, ब्रिटेन और फ़्राँस के बाद सातवें स्थान पर चला गया है। वर्ष 2018 की आर्थिक विकास दर की वैश्विक सूची में भारत छठे स्थान पर था, लेकिन आर्थिक विकास की सुस्त चाल के कारण आर्थिक मन्दी के प्रभाव में अब फिर से पीछे चला गया है। वर्ष 2017 में इस सूची में भारत फ़्राँस से आगे निकल गया था जब भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार 2.65 ट्रिलियन डॉलर था जिससे भारत विश्व की पाँचवीं अर्थव्यवस्था बन गया था। उस समय ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का आकार 2.64 ट्रिलियन डॉलर और फ़्राँस की अर्थव्यवस्था का आकार 2.59 ट्रिलियन डॉलर था। वर्ष 2018 में भारतीय अर्थव्यवस्था का आकार बढ़कर 2.73 ट्रिलियन डॉलर तो हुआ, लेकिन भारत की तुलना में फ़्राँस और ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था के ज़्यादा मज़बूत होने से भारत आर्थिक विकास दर की वैश्विक सूची में पिछड़कर छठे स्थान पर चला गया। वर्ष 2018 में ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था का आकार बढ़कर 2.84 ट्रिलियन डॉलर और फ़्राँस की अर्थव्यवस्था का आकार 2.78 ट्रिलियन डॉलर हो गया था।
वर्ष 2007-09 में विश्व भर में आर्थिक मन्दी का व्यापक प्रभाव वर्ष 1930 के बाद सबसे बड़ा आर्थिक संकट था जिससे भारत भी प्रभावित हुआ था। अब फिर विश्व के कई देशों के साथ भारत फिर से वैसी ही आर्थिक मन्दी की चपेट में है। हालांकि आर्थिक मन्दी का यह संकट वैश्विक है, लेकिन भारत में यह ज़्यादा स्पष्ट रूप से दिखाई दे रहा है।
आर्थिक विकास दर के गिरने का एक बड़ा कारण देश में विनिर्माण क्षेत्र में गिरावट और कृषि-क्षेत्र में पिछले वर्ष की अपेक्षा कमज़ोर प्रदर्शन भी है। इसे औद्योगिक और कृषि-क्षेत्र पर छाए संकट के रूप में देखा जा सकता है। औद्योगिक उत्पादन के कम होने से माल-ढुलाई, वितरण, दूरसंचार और पर्यटन जैसी विभिन्न प्रकार की सेवाएं भी प्रभावित हो रही हैं। उद्योगों पर पड़े प्रभाव से बेरोज़गारी को भी बढ़ावा मिल रहा है। औद्योगिक उत्पादन न होने से उद्योग बन्द हो रहे हैं जिसके चलते उद्योगों से जुड़े कर्मचारियों की छंटनी की जा रही है। एक तो नए रोज़गार का सृजन नहीं हो रहा है, दूसरे लोगों के पास जो रोज़गार है वह भी छिन रहा है जिससे बेरोज़गारी का बढ़ना निश्चित है। यह भी एक कारण है कि आर्थिक विकास में गिरावट का बहुत स्पष्ट प्रभाव रोज़गार में भारी कमी के रूप में देखा जा रहा है। वर्तमान समय में रोज़गार के अवसर बहुत ज़्यादा घट गए हैं। किसानों और कृषि की दशा भी छुपी नहीं है। सरकार की घोर उपेक्षा के शिकार किसान और कृषि बहुत चिन्ताजनक स्थिति में हैं जिसका प्रभाव देश में कृषि-उत्पादन पर पड़ रहा है। यह एक बहुत बड़ी वास्तविकता है कि देश के किसान, मज़दूर और जनजातीय लोग आज भी देश के सबसे ग़रीब वर्ग में आते हैं और बहुत ही मुश्किल परिस्थितियों में जीवन-यापन करने के लिए मजबूर हैं।
आर्थिक विकास के कम होने से निवेश में भी भारी कमी आ रही है क्योंकि जब कमाई ही नहीं होगी तो निवेश भी नहीं होगा। इससे अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह कम हो गया है जिसे आर्थिक तरलता में कमी के रूप में पहचाना जाता है। लोगों के पास रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही पर्याप्त धन नहीं है तो बैंक और अन्य वित्तीय संस्थानों में भी धन निवेश में नहीं जाएगा जिससे बैंकों और वित्तीय संस्थानों के पास कर्ज़ देने के लिए धन की भारी कमी हो जाएगी। इससे अर्थव्यवस्था पर नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा क्योंकि अर्थव्यवस्था को मज़बूती देने में कर्ज़ की माँग और आपूर्ति, दोनों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। कर्ज़ की माँग में कमी का एक दूसरा पक्ष यह कि जब उद्योगों में उत्पादन ही नहीं होगा तो कर्ज़ की माँग भी कहाँ होगी!
किसी भी देश के आर्थिक विकास की दर उस देश के उत्पादन-वृद्धि की दर है जो एक निर्धारित अवधि में उस देश में बने सभी उत्पादों और सेवाओं के मूल्य का जोड़ होती है। यही कारण है कि देश में विभिन्न विकासात्मक गतिविधियों में आई कमी आर्थिक विकास दर में गिरावट के रूप में परिलक्षित होती है। ऐसे में लोगों की क्रय-क्षमता घट जाती है जिससे लोग रोज़मर्रा की ज़रूरतों को पूरा करने में असमर्थ हो जाते हैं। ऐसे में खाने-पीने की चीज़ों से लेकर कपड़ा, तेल व साबुन की खपत और वाहनों की बिक्री में कमी आ जाती है।
देश की गिरती अर्थव्यवस्था का देश के ग़रीब लोगों को ग़रीबी से बाहर निकालने के प्रयासों पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ रहा है। वर्तमान समय में देश के 28.5 प्रतिशत लोग ग़रीबी-रेखा से नीचे हैं। ग़रीबी का यह आँकड़ा शहरों में तेतीस रुपये से कम और गाँवों में सत्ताईस रुपये से कम प्रति व्यक्ति प्रतिदिन आय के आधार पर निर्धारित किया गया है। इससे देश में ग़रीबी की वास्तविक स्थिति का अन्दाज़ा अच्छी तरह लगाया जा सकता है। इन लोगों को ग़रीबी से बाहर निकाले जाने की दिशा में सकारात्मक प्रयास किए जाने चाहिए।
इस बात से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि भारत में ग़रीबी का एक बड़ा कारण यहाँ की बढ़ती जनसंख्या भी है जिसने ग़रीबी को बढ़ाने के साथ-साथ शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे क्षेत्रों को भी बुरी तरह प्रभावित किया है, लेकिन ग़रीबी के दूसरे कारणों पर भी गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। देश में आय के संसाधनों का असमान वितरण, रोज़गार के नए अवसर पैदा न होना, बढ़ती महंगाई, ग़रीब लोगों के लिए बनाई जा रही योजनाओं का सही क्रियान्वयन न होना, सरकार के स्तर पर किसानों व मज़दूरों की उपेक्षा, उद्योगपतियों द्वारा मज़दूरों का शोषण, कौशल का अभाव जैसे कई कारण हैं जिनसे ग़रीबी बढ़ी है। देश से ग़रीबी दूर करने के लिए व्यवस्था के इस ढाँचे को बदलने की ज़रूरत है।
ग़रीबी से पार पाने के लिए आर्थिक विकास से भी इतर सोचने की ज़रूरत है। भारत का आर्थिक विकास विश्व-पटल पर यूँ भी तब तक एक अनुपयोगी विकास (जॉबलैस ग्रोथ) के रूप में ही रह जाएगा जब तक इसका ग़रीबी कम करने और रोज़गार-सृजन में कोई योगदान नहीं होता। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह बेरोज़गारी की दर बढ़ी है उससे यह स्पष्ट है कि यहाँ की अर्थव्यवस्था में ऐसा कुछ भी नहीं हो रहा है जिससे ग़रीबी दूर करने के साथ-साथ रोज़गार-सृजन किया जा सके। भारत में लगातार बढ़ती बेरोज़गारी इस बात की गवाह है कि यहाँ आर्थिक विकास के आँकड़े वास्तविक स्थिति से न तो चार-पाँच वर्ष पहले मेल खाते थे और न अब मेल खाते हैं। पिछली सरकार में प्रमुख आर्थिक सलाहकार रहे अरविन्द सुब्रमण्यम ने आर्थिक विकास दर के जारी आँकड़ों को लेकर सरकार की कार्य-प्रणाली पर ही सवाल उठाते हुए इस्तीफ़ा दे दिया था। उन्होंने लेख्य जारी करके कहा था कि सरकार ने आधिकारिक रूप से आर्थिक विकास दर के जो आँकड़े जारी किए थे वो वास्तव में उससे कहीं कम थे। सरकार को इस प्रथा को बदलकर देश के आर्थिक विकास को तर्कसंगत आधार देने की ज़रूरत है ताकि इसे ग़रीबी-उन्मूलन और रोज़गार-सृजन से जोड़कर ग़रीबी की चुनौती से निपटा जा सके।

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