संकट में कामगार

कामगारों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इनके लिए तत्काल एक राष्ट्रीय कामगार नीति बनाए जाने की ज़रूरत है। इससे निश्चित ही देश के कामगारों को आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके इनकी स्थिति में सुधार लाया जा सकेगा।

संजय ठाकुर

अन्तर्राष्ट्रीय श्रम संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार वर्तमान परिस्थितियों में भारत में अनौपचारिक क्षेत्र के लगभग चालीस करोड़ कामगार ग़रीबी में और गहरे धंस जाएंगे। हालांकि देश में इस समस्या के समाधान की क्षमता है जैसा कि वर्ष 1998 के एशियाई आर्थिक संकट, वर्ष 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट और वर्ष 2016 की नोटबन्दी के समय और अन्य विभिन्न अवसरों पर देखा भी गया है, लेकिन वर्तमान परिस्थितियों में उभरे संकट से पार पाने के लिए प्रभावी कदम उठाए होंगे। कामगारों की वर्तमान स्थिति को देखते हुए इनके लिए तत्काल एक राष्ट्रीय कामगार नीति बनाए जाने की ज़रूरत है। इससे निश्चित ही देश के कामगारों को आर्थिक व सामाजिक सुरक्षा प्रदान करके इनकी स्थिति में सुधार लाया जा सकेगा। इस समय सरकार का ध्यान आर्थिक गतिविधियों को सामान्य बनाकर, रोज़गार-सृजन और आजीविका-सुरक्षा प्रदान करने पर केन्द्रित होना चाहिए। वर्तमान समय में देश में रोज़गार, सामाजिक सुरक्षा और चिकित्सा-सहायता जैसी कई चुनौतियां हैं जिन पर काम किया जाना चाहिए।
यह एक विडम्बना ही है कि आर्थिक उन्नति का आधार होते हुए भी कामगार उपेक्षित हैं। देश का सारा औद्योगिक विकास, कृषि, व्यापार और निर्माण-कार्य इन्हीं पर टिका है। देश के विकास का इतना महत्वपूर्ण अंग होते हुए भी ये उपेक्षित ही नहीं बल्कि बहुत कम मज़दूरी पर काम करते हुए बहुत मुश्किल परिस्थितियों में जीवन-यापन करने के लिए मजबूर हैं। ये कामगार देश के आर्थिक ढाँचे का मज़बूत आधार हैं। देश को अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अग्रिम पंक्ति में लाने में इन कामगारों का एक बड़ा योगदान है। इनके इतने महत्वपूर्ण योगदान को देखते हुए इनके हितों की रक्षा करना देश की सरकार, प्रशासन और समाज का दायित्व हो जाता है।
देश में कामगारों की एक बहुत बड़ी संख्या असंगठित क्षेत्र के कामगारों की है जिसमें देश के नब्बे प्रतिशत से ज़्यादा कामगार आते हैं। देश की अर्थव्यवस्था में लगभग आधी हिस्सेदारी इसी असंगठित क्षेत्र की है। देश के ग़ैर-कृषि क्षेत्र में लगभग छब्बीस करोड़ कामगार हैं। सेवाओं, विनिर्माण और ग़ैर-विनिर्माण क्षेत्रों में अनौपचारिक कामगारों की संख्या लगभग इक्कीस करोड़ सत्तर लाख है। बिजली, पानी, गैस, निर्माण और खनन के क्षेत्र में लगभग पाँच करोड़ नब्बे लाख कामगार हैं। विनिर्माण-क्षेत्र पाँच करोड़ चौंसठ लाख कामगारों को रोज़गार देता है। इनमें से कपड़ा और परिधान विनिर्माण क्षेत्र में लगभग एक करोड़ अस्सी लाख कामगार आते हैं। खुदरा-व्यापार में तीन करोड़ सत्तर लाख से ज़्यादा कामगारों का रोज़गार है। पुष्प-उद्योग प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से लगभग एक करोड़ कामगारों को रोज़गार देता है देश के सभी कामगारों में से आधे से ज़्यादा बिना अनुबन्ध के ही काम करते हैं।
सफ़ाई-कर्मचारी, कृषि-श्रमिक, बढ़ई, लोहार, दर्ज़ी, पशु-पालक, रिक्शा-चालक आदि कुछ ऐसे कामगार हैं जिनके बग़ैर सामाजिक निर्वहन मुश्किल है। सूती वस्त्र उद्‌योग, हथकरघा उद्योग, चीनी उद्‌योग, लौह एवं इस्पात उद्‌योग, सीमेण्ट उद्‌योग आदि कितने ही उद्योग हैं जो इन्हीं कामगारों पर निर्भर हैं। कामगारों पर समाज की इतनी निर्भरता के बावजूद भी ये पूरी तरह उपेक्षित हैं।
देश में होनहार कामगारों की कभी कमी नहीं रही, लेकिन अवसर की उपलब्धता की कमी ज़रूर रही है। इन्हीं अवसरों की कमी से इन कामगारों का गाँवों से नगरों और महानगरों की ओर पलायन होता रहा जिसे रोकने की दिशा में कभी भी प्रयास नहीं किए गए। गाँवों में रोज़गार के अवसर पैदा करने, ग्रामीण लोगों का जीवन-स्तर सुधारने और उन्हें आर्थिक सुरक्षा प्रदान करने की दिशा में भी कुछ विशेष नहीं किया गया। गाँवों में आय का सबसे बड़ा साधन कृषि है, लेकिन यह क्षेत्र हमेशा ही उपेक्षित रहा जिससे इसके स्तर को सुधारा नहीं जा सका। देश के किसानों की स्थिति किसी से छुपी नहीं है। उपेक्षा के शिकार ऐसे किसान दिल्ली व मुम्बई जैसे महानगरों और पंजाब, पश्चिम बंगाल, गुजरात व आन्ध्र प्रदेश जैसे राज्यों में जाकर मज़दूरी करने को मजबूर हो जाते हैं।
वर्तमान समय में देश में करोड़ों कामगार संकट में हैं। कामगारों के सम्बन्ध में देश की कोई भी सशक्त नीति न होने से इनके पास कोई आर्थिक सुरक्षा नहीं है। सामाजिक सुरक्षा और बीमा जैसी सुविधा न होने से, आय के साधन छिन जाने पर इनके पास जीवन-यापन का कोई विकल्प ही बचता जिससे ये पूरी तरह असुरक्षा की स्थिति में आ जाते हैं। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण और आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण के आँकड़ों से भी इस बात की पुष्टि होती है कि वर्तमान समय में करोड़ों कामगारों पर सीधा संकट है जिससे इनके अस्तित्व पर एक बड़ा सवाल खड़ा हो गया है।
वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखें तो करोड़ों ऐसे कामगार हैं जिनका रोज़गार छिन गया है और वो अपने गाँवों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए हैं। ये कामगार रोज़गार की तलाश में कभी अपने गाँवों से नगरों और महानगरों की ओर पलायन करने को मजबूर हुए थे। वर्तमान परिस्थितियों ने इन्हें घर वापस जाने के लिए मजबूर कर दिया है। आजीविका का साधन छिन जाने से इन कामगारों के पास पलायन के सिवा कोई रास्ता ही नहीं बचा था। इन कामगारों का यह संकट यहीं तक सीमित नहीं है बल्कि इनके लिए आने वाले दिन और भी मुश्किल भरे हो सकते हैं। घटती माँग और आपूर्ति की कमी के कारण विकास-दर पर पड़ा बुरा प्रभाव रोज़गार-सृजन को मुश्किल बनाने के साथ-साथ वर्तमान समय में काम कर रहे कामगारों के रोज़गार को भी प्रभावित करेगा। ये ग़ैर-पंजीकृत छोटे व्यवसायों और पंजीकृत छोटी कम्पनियों में काम करने वाले ऐसे कामगार हैं जिनके पास लिखित अनुबन्ध नहीं है। जिन बड़े व्यवसायों और बड़ी कम्पनियों में काम कर रहे कामगारों के पास लिखित अनुबन्ध है उनमें भी पाँच करोड़ से ज़्यादा ऐसे कामगार हैं जिनके पास एक वर्ष से भी कम अवधि का अनुबन्ध है। दैनिक वेतन भोगी वो लोग भी प्रभावित होंगे जिनकी आर्थिक संकट के नाम पर छंटनी की जाएगी। इस तरह वर्तमान परिस्थितियां नौकरियों के संकट को बढ़ाएंगी। देश में वैसे भी, हर वर्ष एक करोड़ से ज़्यादा नौकरियों की ज़रूरत है और यह माँग लगातार बढ़ रही है। इस परिस्थितियों का स्वरोज़गार में लगे हुए कामगारों की स्थिति पर भी बुरा प्रभाव पड़ेगा।
वर्तमान परिस्थितियों में उद्योगों पर पड़ा बुरा प्रभाव सीधे रूप में कामगारों से जुड़ा है। आधे से ज़्यादा उद्योग बन्द होने के कगार पर पहुँच गए हैं। अगर ये बन्द होते हैं तो बहुत-सी नौकरियां ख़तरे में पड़ जाएंगी। इस तरह देखें तो आधे से ज़्यादा आतिथेय उद्योग बन्द होने से दो करोड़ से ज़्यादा नौकरियां प्रभावित होंगी। यही स्थिति निर्माण और विनिर्माण क्षेत्रों के उद्योगों की भी है। खाद्य उत्पाद, कपड़ा, धातु, रबड़, प्लास्टिक, इलैक्ट्रॉनिक्स, सीमेण्ट और पूँजीगत सामान के विनिर्माण क्षेत्र में लगभग नौ करोड़ नौकरियों को कम किया जा सकता है। इसी तरह ऑटोमोबाइल उद्योग में भी एक लाख और विमानन उद्योग में लगभग छह लाख नौकरियां ख़तरे में हैं।
कामगारों के लिए ये स्थितियां नई नहीं हैं। कामगार पहले भी कई अवसरों पर ऐसी स्थितियों से गुज़र चुके हैं। पहले भी बहुत-से कामगारों की आय के स्रोत बुरी तरह प्रभावित हुए हैं जिससे इनका जीवन दूभर हुआ है। अन्तर सिर्फ़ इतना है कि पहले कामगारों पर आया संकट इतना व्यापक नहीं था जितना अब है। हालांकि नगरों और महानगरों से पलायन कर रहे इन कामगारों की सहायता के लिए केन्द्रऔर राज्य सरकारों ने हाथ बढ़ाया है, लेकिन इतना काफ़ी नहीं है। इनके लिए इससे बढ़कर किए जाने की ज़रूरत है।
केन्द्र सरकार को कामगारों की इस स्थिति पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए। सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और समाज-कल्याण में बड़े पैमाने पर निवेश किया जाना चाहिए। कामगारों को प्रत्यक्ष लाभ अन्तरण (डीबीटी) के माध्यम से सहायता पहुँचाई जानी चाहिए। कामगारों के लिए केन्द्र और विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा जो कल्याणकारी योजनाएं चलाई जा रही हैं उन्हें व्यावहारिक रूप देना होगा जिससे कामगारों को उनका लाभ मिल पाए। केन्द्र सरकार द्वारा महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी अधिनियम (मनरेगा), 2005 के अन्तर्गत चलाए गए कार्यक्रम ने कभी ग्रामीण क्षेत्रों में कामगारों को रोज़गार उपलब्ध करवाने में बड़ी भूमिका निभाई थी। आरम्भिक चरण में इस कार्यक्रम से ग्रामीण क्षेत्रों में कामगारों की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार निश्चित रूप से आया था और उस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों से कामगारों के पलायन में भी भारी कमी आई थी। इस कार्यक्रम को यहाँ से और प्रभावी रूप से आगे ले जाने की ज़रूरत है। इस कार्यक्रम को भ्रष्टाचार से मुक्त करके इसे ज़रूरतमन्दों के लिए उपयोगी बनाना होगा। इसी तरह कामगारों पर केन्द्रित दूसरी योजनाओं को भी भ्रष्टाचार से मुक्त करके इन्हें प्रभावी ढंग से लागू करना वर्तमान समय की एक बड़ी माँग है।
देश का सर्वोच्च न्यायालय भी अपनी टिप्पणी में बड़ी संख्या में कामगारों के पलायन और कामगारों की वर्तमान दशा को एक बड़ी समस्या कह चुका है। इस तरह वर्तमान परिस्थितियों से उपजे इस संकट को व्यवस्था के ढाँचे की पोल खोलती एक आपदा के रूप में भी देखा जाना चाहिए। सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी को गम्भीरता से लेते हुए स्थिति में बदलाव लाया जाना चाहिए। इस दिशा में एक राष्ट्रीय कामगार नीति की बड़ी भूमिका हो सकती है। सरकार को इस नीति के निर्माण पर प्राथमिकता के आधार पर काम करना चाहिए।

 

 

 

अन्न की अच्छी पैदावार और भुखमरी
यह एक विडम्बना ही है कि भारत में अन्न की अच्छी पैदावार के बावजूद कुप्रबन्धन के चलते बीस करोड़ से ज़्यादा लोग भुखमरी की चपेट में हैं। यह स्थिति भी तब है कि जब देश के प्रत्येक नागरिक को भोजन का अधिकार प्रदान करने के लिए देश में राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, 2013 पारित किया गया है जिसे खाद्य अधिकार क़ानून के रूप में भी जाना जाता है। ऐसे क़ानून के रहते भी वास्तविकता यह है कि देश के लोगों को खाद्य सुरक्षा प्रदान करना देश के सामने एक बड़ी समस्या बना हुआ है जिससे भुखमरी का ग्राफ बहुत बढ़ गया है। यही कारण है कि ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में भारत की रैंकिंग बुरी तरह गिरी है। वर्ष 2019 के लिए जारी ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में भारत 102वें स्थान पर है। यहाँ तक कि भारत से कहीं छोटे पड़ौसी देश नेपाल, बांग्लादेश, श्रीलंका और पाकिस्तान भी इस सूची में भारत से अच्छी स्थिति में हैं। इस सूची में नेपाल 73वें, बांग्लादेश 88वें, श्रीलंका 66वें और पाकिस्तान 94वें स्थान पर है। भारत का एक और पड़ौसी देश चीन तो भारत से कहीं ऊपर 25वें स्थान पर है। ग्लोबल हंगर इण्डैक्स की रिपोर्ट के अनुसार भारत दुनिया के सैन्तालीस ऐसे देशों में है जहाँ भुखमरी की स्थिति गम्भीर है।
ग्लोबल हंगर इण्डैक्स की रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में छह से तेईस महीने के आयुवर्ग में सिर्फ़ 9.6 प्रतिशत बच्चों को ही न्यूनतम पौष्टिक आहार मिल पाता है। इस रिपोर्ट के अनुसार बच्चों में लम्बाई के अनुपात में कम वज़न की दर (चाइल्ड वेस्टिंग रेट) भारत में 20.8 प्रतिशत है जो इस सूची के किसी भी देश से ज़्यादा है।
वर्ष 2014 के बाद ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में भारत की रैंकिंग जिस तेज़ी से गिरी है उससे एक बेहद चिन्ताजनक स्थिति पैदा होती है। ग्लोबल हंगर इण्डैक्स में वर्ष 2014 में भारत 55वें, वर्ष 2015 में 80वें, वर्ष 2016 में 97वें, वर्ष 2017 में 100वें और वर्ष 2018 में 103वें स्थान पर था। इससे यह बात स्पष्ट होती है कि भारत में पोषण, स्वास्थ्य, स्वच्छता और विकास की बड़ी-बड़ी बातें तो की जा रही हैं, लेकिन धरातल पर कुछ विशेष नहीं किया जा रहा है। भारत में भुखमरी की इस स्थिति को संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में भी उजागर किया गया है। इस रिपोर्ट के अनुसार दुनिया में भुखमरी के शिकार पिचासी करोड़ तीस लाख लोगों में से लगभग तेईस करोड़ लोग भारत में ही हैं। इसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि विश्व की भुखमरी की शिकार लगभग एक-चौथाई आबादी भारत में ही है। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि भारत में अन्न का पर्याप्त उत्पादन होता है, लेकिन ये अन्न सभी ज़रूरतमन्द लोगों तक नहीं पहुँचता।
भारत एक कृषि-प्रधान देश है जहाँ की साठ प्रतिशत से ज़्यादा आबादी की आजीविका ही कृषि पर निर्भर करती है। कृषि पर ऐसी निर्भरता यहाँ अन्न की अच्छी पैदावार का एक बड़ा कारण है। अन्न की ऐसी उपलब्धता के बावजूद देश में बढ़ती भुखमरी से यह बात स्पष्ट होती है कि देश के खेतों में अन्न तो उगाया जा रहा है, लेकिन वह लोगों तक नहीं पहुँच रहा है। ऐसे में यह बात जानना ज़रूरी है कि आख़िर वह अन्न जा कहाँ रहा है। कुल मिलाकर यही बात सामने निकलकर आती है कि वह अन्न या तो मुनाफ़ाखोरों और कालाबाज़ारियों के ताले में बन्द है या सरकार के गोदामों में सड़ रहा है, या फिर खेत से गोदामों या घरों तक पहुँचने से पहले ही बर्बाद हो रहा है। इसके अतिरिक्त देश में अन्न भोजन के रूप में भी बड़ी मात्रा में बर्बाद किया जा रहा है। एक तरफ़ तो देश की एक बड़ी आबादी के पास खाने के लिए अन्न नहीं है, तो दूसरी तरफ़ लाखों टन अन्न या तो सरकार के कुप्रबन्धन की भेंट तो चढ़ रहा है, या फिर कुछ सुविधा-सम्पन्न लोगों द्वारा बर्बाद किया जा रहा है। इस तरह हो रही अन्न की यह बर्बादी थोड़ी नहीं है। यह बर्बादी इतनी ज़्यादा है कि देश में करोड़ों भूखे पेटों को कई वर्षों तक आसानी से भरा जा सकता है।
खेत से लेकर गोदामों, दुकानों और घरों में पहुँचने तक अन्न की बर्बादी के विभिन्न चरण हैं। उदाहरण के तौर पर भारत में बड़ी मात्रा में पैदा होने वाली फ़सल धान की बात करते हैं। प्रति क्विण्टल 3.82 किलोग्राम धान तो खेत में ही बर्बाद हो जाता है। इसके बाद प्रति क्विण्टल 1.2 किलोग्राम धान उचित भण्डारण के अभाव में बर्बाद हो जाता है। इसी तरह प्रति क्विण्टल 3.28 किलोग्राम गेंहूँ खेत में, लगभग आधा किलोग्राम थ्रैशिंग या भूसी निकालने के दौरान और लगभग एक किलोग्राम भण्डारण के समय बर्बाद हो जाता है। इस तरह प्रति क्विण्टल लगभग पाँच किलोग्राम धान और लगभग इतना ही गेंहूँ बर्बाद हो जाता है। एक जानकारी के अनुसार अन्न के खेत-खलिहान से बाज़ार तक पहुँचने में कुल उपज का लगभग चालीस प्रतिशत अन्न बर्बाद हो जाता है। इसमें से अन्न की पिचहत्तर प्रतिशत बर्बादी तो खेत-खलिहान में ही हो जाती है। इसके बाद भण्डारण की उचित व्यवस्था न होने से भी अन्न बर्बाद होता है। फ़ूड कॉर्पोरेशन ऑफ़ इण्डिया (ऐफ़सीआई) के पास कुल दो सौ अस्सी लाख टन से ज़्यादा अन्न-भण्डारण की क्षमता है जिसमें से एक सौ तीस लाख टन अन्न-भण्डारण अपने गोदामों में और एक सौ पचास लाख टन से ज़्यादा अन्न-भण्डारण सरकार एवं निजी अभिकरणों से किराये पर लिए गोदामों में किया जाता है। एक तो अन्न-भण्डारण की यह क्षमता कम है, दूसरे इन गोदामों में अन्न को रखने की उचित व्यवस्था भी नहीं है जिस कारण हर वर्ष लाखों टन अन्न सड़ जाता है। इस प्रकार उचित रख-रखाव के अभाव में बर्बाद हो रहे अन्न की तरफ़ सरकार द्वारा कभी भी गम्भीरता से ध्यान नहीं दिया गया।
विभिन्न स्तरों पर हो रही अन्न की बर्बादी का सीधा असर इसके मूल्य पर पड़ता है जिसका ख़ामियाजा लोगों को अन्न की ज़्यादा कीमत चुकाकर भुगतना पड़ता है। इस सम्बन्ध में सरकार और उन सभी सरकारी अभिकरणों पर अंगुलियां उठती हैं जिन पर अन्न को खेतों से गोदामों, दुकानों एवं घरों तक पहुँचाने और भण्डारण की ज़िम्मेदारी है। हालांकि अन्न की इस बर्बादी को कम करने के लिए केन्द्र सरकार ने नैशनल पॉलिसी ऑन हैण्डलिंग ऐण्ड स्टोरेज ऑफ़ फ़ूडग्रेन्स नाम से एक नीति बनाई है, लेकिन अन्न की बर्बादी को रोकने के आशाजनक परिणाम नहीं निकले हैं।
अन्न के साथ-साथ बर्बाद किए जा रहे भोजन को भी बचाने की ज़रूरत है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारतीय लोगों द्वारा प्रतिदिन दो सौ चौवालीस करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद कर दिया जाता है। इस तरह भारत में प्रतिवर्ष लगभग नवासी हज़ार साठ करोड़ रुपये का भोजन बर्बाद हो जाता है जिससे बीस करोड़ से ज़्यादा लोगों के पेट भरे जा सकते हैं।
देश में बढ़ती आर्थिक असमानता से भुखमरी की समस्या और भी गम्भीर रूप धारण कर रही है। चिन्ता तो इस बात की है कि सरकार आर्थिक असमानता को कम करने के प्रति गम्भीर नहीं है। यही कारण है कि आर्थिक असमानता को कम करने के अन्तर्राष्ट्रीय पैमाने पर भारत की स्थिति बेहद चिन्ताजनक है। ब्रिटेन स्थित चैरिटी ऑक्सफ़ैम इण्टरनैशनल द्वारा आर्थिक असमानता को कम करने के प्रतिबद्धता सूचकांक में भारत को एक सौ सतावन देशों की सूची में 147वें स्थान पर रखकर बहुत ही चिन्ताजनक स्थिति के रूप में चिन्हित किया गया है। देश की ज़्यादातर नीतियां उद्योगपतियों पर ही केन्द्रित हैं जिस कारण आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ रही है। ऐसे में गिने-चुने लोगों का ही विकास हो रहा है और देश की एक बड़ी जनसंख्या दो वक़्त की रोटी से भी वंचित है।
सरकार द्वारा देश में प्रति व्यक्ति आय बढ़ाने की तरफ़ भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जा रहा है जिस कारण भारत में प्रति व्यक्ति आय दुनिया के ज़्यादातर देशों से बहुत कम है। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार प्रति व्यक्ति आय की दर के मामले में भारत दो सौ देशों की सूची में 126वें स्थान पर है।
देश में प्रत्येक व्यक्ति के लिए भोजन को सुनिश्चित करना सरकार की ज़िम्मेदारी है। भोजन की उपलब्धता को सुनिश्चित करने के लिए वैसे तो, भारत में अन्त्योदय अन्न योजना, अन्नपूर्णा योजना, राशन वितरण प्रणाली और मिड डे मील योजना जैसी कई योजनाएं बनाई गई हैं, लेकिन क्रियान्वयन के स्तर की ख़ामियों से देश की एक बड़ी आबादी आज भी अन्न से वंचित है। वह अन्न जिसे लोगों की भूख मिटानी थी, सरकार के कुप्रबन्धन के चलते बर्बाद हो रहा है। अन्न की बर्बादी का यह आँकड़ा बहुत बड़ा है। एक बार देश के सर्वोच्च न्यायालय ने सरकार के गोदामों में सड़ रहे अन्न को देश के ग़रीब लोगों में वितरित करने के लिए कहा था, लेकिन उचित कार्य-प्रणाली के अभाव में सरकार ने ऐसा करने में असमर्थता जताई थी। सरकार को बर्बाद हो रहे अन्न को भूखे लोगों तक पहुँचाने की समुचित व्यवस्था करनी चाहिए। इसके साथ ही हर पेट को भोजन उपलब्ध करवाने पर केन्द्रित सशक्त नीति बनाकर उसे उद्देश्यपरक कार्यरूप देना होगा ताकि भुखमरी से निपटने में प्रभावी प्रयास किए जा सकें।

 

 

 

उचित जल-प्रबन्धन की ज़रूरत
भारत के नियन्त्रक और महालेखा परीक्षक की रिपोर्ट के अनुसार सरकारी योजनाएं प्रति दिन प्रति व्यक्ति चार बाल्टी स्वच्छ जल उपलब्ध करवाने के निर्धारित लक्ष्य का आधा भी जल उपलब्ध करवाने में सफल नहीं हो पाई हैं। ऐसी स्थिति भी तब है कि जब स्वच्छ जल उपलब्ध करवाने पर आधारित परियोजना की कुल धनराशि नवासी हज़ार नौ सौ छप्पन करोड़ रुपये का नब्बे प्रतिशत भाग ख़र्च किया जा चुका है। इस रिपोर्ट में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि घटिया प्रबन्धन के चलते सही निष्पादन के अभाव में सभी योजनाएं निर्धारित लक्ष्य से दूर होती जा रही हैं। योजनाओं के उचित क्रियान्वयन के अभाव में आज भी देश के लगभग पिचहत्तर प्रतिशत घरों में पीने के लिए स्वच्छ जल उपलब्ध नहीं है। देश में लगभग छह करोड़ साठ लाख लोग ज़रूरत से ज़्यादा फ़्लोराइड वाला जल पीने से और लगभग तीन करोड़ सतत्तर लाख लोग प्रति वर्ष दूषित जल के प्रयोग से बीमार पड़ जाते हैं। इनमें से लगभग दो लाख लोगों की मौत हो जाती है। देश के ग्रामीण क्षेत्रों में दूषित जल के प्रयोग से लगभग पन्द्रह लाख बच्चे आन्त्रशोथ के कारण मर जाते हैं। विभिन्न सर्वेक्षणों से यह बात सामने आई है कि दूषित जल से बीमार होने के कारण लगभग साढ़े सात करोड़ कार्य-दिवस बर्बाद हो जाते हैं जिससे देश की लगभग उनतालीस अरब रुपये की आर्थिक हानि होती है। देश में सरकारी व प्रशासनिक लापरवाहियों की एक तस्वीर यह भी है कि देश के सत्रह लाख ग्रामीण क्षेत्रों में से अठत्तर प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों में भी मुश्किल से ही ज़रूरत के लायक जल पहुँच पाता है। इस तरह से देखें तो देश के लगभग पैन्तालीस हज़ार गाँवों को ही नल या हैण्डपम्प के माध्यम से जल उपलब्ध करवाया जा सका है जबकि उन्नीस हज़ार से ज़्यादा गाँव ऐसे हैं जहाँ जल का कोई भी स्रोत नहीं है। प्रबन्धन के स्तर की सभी कमियों को दूर करके उचित जल-प्रबन्धन से निश्चित ही देश में जल-संकट की इस तस्वीर को बदला जा सकता है।
उचित जल-प्रबन्धन न होने और जल-प्रबन्धन की तकनीक के विकसित न होने से बर्बाद होते जल को बचाना हमेशा से ही मुश्किल रहा है। जल-प्रबन्धन को लेकर कोई ठोस नीति न होने से स्थिति लगातार बिगड़ती जा रही है। देश में कई स्तरों पर बरती गई लापरवाहियों से यहाँ कभी भी जल-संचयन के प्रति सही समझ नहीं बनाई जा सकी जिस कारण इस दिशा में सरकारी स्तर पर यथोचित प्रयास नहीं किए गए। जल-संचयन को लेकर बरती जा रही लापरवाहियों से ही देश में वर्षा के रूप में भारी मात्रा में प्राप्त जल व्यर्थ ही चला जाता है। वर्षा के मामले में भारत दुनिया के बहुत-से देशों से बहुत आगे है। देश में औसत रूप से प्रतिवर्ष एक हज़ार एक सौ सत्तर मिलीमीटर वर्षा होती है जिससे कुल चार हज़ार घन मीटर जल उपलब्ध होता है। वर्षा की यह मात्रा वर्षा की दृष्टि से समृद्ध कई देशों से कहीं ज़्यादा है। चिन्ता तो इस बात की है कि देश में इस वर्षाजल का पन्द्रह प्रतिशत भाग ही उपयोग हो पाता है और शेष पिचासी प्रतिशत जल या तो बर्बाद हो जाता है, या फिर समुद्र में चला जाता है। जल की शेष आपूर्ति के लिए एक हज़ार आठ सौ उनहत्तर घन किलोमीटर भू-जलराशि पर निर्भर रहना पड़ता है जिसका मात्र एक हज़ार एक सौ बाईस घन किलोमीटर जल ही उपयोग में आता है। देश की लगभग पिचासी प्रतिशत जनसंख्या भू-जल पर ही निर्भर है जबकि जल पर आधारित दुनिया की विभिन्न संस्थाओं ने स्पष्ट रूप से कहा है कि भू-गर्भ में अब जल नाममात्र ही रह गया है।
इस बात के महत्व को भी समझा जाना चाहिए कि देश में नदियों के रूप में ही इतनी जलराशि है कि यह कुल भौगौलिक क्षेत्रफल के लगभग बराबर है। देश की नदियों में बहने वाले लगभग एक हज़ार नौ सौ तेरह अरब साठ करोड़ घन मीटर जल की मात्रा का विस्तार देश के कुल बत्तीस लाख सत्तर हज़ार वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर है जबकि यहाँ का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल बत्तीस लाख अस्सी हज़ार वर्ग किलोमीटर है। देश की नदियों में बहने वाला जल दुनिया की सभी नदियों में बहने वाले जल का 4.5 प्रतिशत है। ज़रूरत है तो इतनी बड़ी जलराशि के उचित उपयोग की। उचित जल-प्रबन्धन से इस अथाह जलराशि की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा को उपयोग में लाया जा सकता है। इसके बिल्कुल उलट देश में नदियों के जल के उचित उपयोग के सम्बन्ध में कभी भी गम्भीरता से विचार नहीं किया गया जिस कारण जल-समृद्ध देश होने के बावजूद यहाँ स्वच्छ पेयजल और सिंचाई के लिए जल का बड़ा अभाव है। इतना ही नहीं इन नदियों के संरक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है जिससे उचित देखरेख के अभाव में बहुत-सी नदियों में जल की मात्रा या तो लगातार कम होती जा रही है, या फिर ये सूख रही हैं। एक शोध पर आधारित कुछ आँकड़ों के अनुसार देश के बिहार राज्य की नब्बे प्रतिशत नदियों में जल नहीं बचा है। पिछले तीन दशकों में कमला, घाघरा और बलान जैसी बड़ी नदियों सहित यहाँ की दो सौ पचास नदियां लुप्त हो गई हैं। यही स्थिति झारखण्ड राज्य की भी है जहाँ पिछले कुछ दशकों में ही अब तक एक सौ इकतालीस नदियां लुप्त हो चुकी हैं। इन नदियों के सूखने या लुप्त होने का एक बड़ा कारण इनका लगातार बढ़ता प्रदूषण है। देश की ज़्यादातर नदियों को प्रदूषित किया जा रहा है जिस पर सरकार और प्रशासन का कोई नियन्त्रण नहीं है। केन्द्रीय प्रदूषण नियन्त्रण बोर्ड के अनुसार देश की ऐसी प्रदूषित नदियों का आँकड़ा तीन सौ पार कर गया है जिनमें से दो सौ पच्चीस नदियों के जल की स्थिति बहुत ज़्यादा ख़राब है। इनमें दिल्ली से बहने वाली यमुना नदी का स्थान पहला है। नदियों के प्रदूषण के मामले में महाराष्ट्र दूसरे स्थान पर है जहाँ तरतालीस नदियां लुप्त होने के कगार पर हैं। इसके बाद असम की अट्ठाईस, मध्यप्रदेश की इक्कीस, गुजरात की सत्रह, बंगाल की सत्रह, कर्नाटक की पन्द्रह, केरल व उत्तर प्रदेश की तेरह-तेरह, मणिपुर व उड़ीसा की बारह-बारह, मेघालय की दस और जम्मू-कश्मीर की नौ नदियां लगातार सूखती जा रही हैं। नदियों को प्रदूषित होने से बचाने के विशेष प्रयास किए जाने चाहिए। इस दिशा में कड़े क़ानून बनाकर उनका सख़्ती से पालन करवाना होगा। इस बात को सुनिश्चित किया जाना चाहिए कि विभिन्न उद्योगों से निकलने वाले अपशिष्ट नदियों में न जा पाएं।
देश में शहरी और ग्रामीण सभी क्षेत्रों में जल का अभाव है। यहाँ इस बात पर ध्यान देना ज़रूरी है कि एक जल-समृद्ध देश होने के बावजूद सरकारी व प्रशासनिक स्तर की लापरवाहियों से यहाँ की एक बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। सरकार व प्रशासन की तरफ़ से न तो कभी जल-प्रबन्धन को महत्व दिया गया और न ही जल-संचयन और जल को बर्बाद होने से बचाने के लिए लोगों में जागरूकता लाने के प्रयास किए गए जिस कारण देश में बहुत-सा जल या तो व्यर्थ ही चला जाता है या बर्बाद कर दिया जाता है। यह स्थिति देश के सभी भागों में एक-सी है। देश के महानगरों, दूसरे शहरों में सत्रह से चौवालीस प्रतिशत जल पानी की टंकी में लगे वॉल्व के ख़राब होने के कारण बर्बाद हो जाता है। इसी तरह से विभिन्न पाइपलाइन से जलापूर्ति के समय भी जगह-जगह पर पाइप के क्षतिग्रस्त होने के कारण भी भारी मात्रा में जल के रिसाव से जल व्यर्थ ही चला जाता है। इसी तरह से दिनचर्या की विभिन्न ज़रूरतों को पूरा करने के लिए भी ज़रूरत से कहीं ज़्यादा जल का इस्तेमाल करके जल की बर्बादी की जाती है। यह उदाहरण भी कम दिलचस्प नहीं कि अकेले मुम्बई महानगर में ही प्रतिदिन पचास लाख लीटर जल वाहनों को साफ़ करने के लिए ख़र्च कर दिया जाता है। इस तरह से यह स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है कि जल-संकट वर्षा की कम मात्रा से कम और जल की बर्बादी से ज़्यादा पैदा होता है।
यह एक विडम्बना ही है कि दुनिया का एक जल-समृद्ध देश होने के बावजूद भारत में उचित जल-प्रबन्धन और योजनाओं के सही निष्पादन के अभाव में देश की एक बड़ी जनसंख्या जल से वंचित है। वास्तविकता तो यह है कि देश में जल का अभाव किसी मौसम-विशेष में ही नहीं होता बल्कि यह तो हर रोज़ की बात है। यह बात ज़रूर है कि गर्मियों में जल के अभाव की मार कुछ ज़्यादा पड़ती है। गर्मी के मौसम में भू-जल का स्तर गिरने से जल की कमी सामान्य-सी बात है। इस कमी को पूरा करना सरकार व प्रशासन का काम है जो उचित जल-प्रबन्धन से निश्चित ही किया जा सकता है। सरकार के सामने जहाँ देश में जलापूर्ति करना सरकार की एक बड़ी ज़िम्मेदारी है वहीं स्वच्छ पेयजल उपलब्ध करवाना भी एक भारी चुनौती है। जल की कमी को दूर करने के लिए सरकार को जल-प्रबन्धन को लेकर कोई ठोस नीति बनाकर उसको प्रभावी ढंग से लागू करना होगा। उचित जल-प्रबन्धन से ही देश में उपलब्ध कुल जलराशि की ज़्यादा से ज़्यादा मात्रा को उपयोग में लाकर जल-संकट जैसी स्थिति से बचा जा सकता है।

 

 

 

 

असमानता की खाई
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान के उपभोग-आँकड़ों, राष्ट्रीय लेखा के आँकड़ों और आयकर-आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में असमानता की खाई लगातार बढ़ रही है। अमीर और ग़रीब के बीच की लगातार बढ़ती खाई देश के विकास के मार्ग का भी एक बड़ा अवरोध है। इस खाई को पाटे बिना देश के विकास की परिकल्पना बहुत मुश्किल है। देश की स्वतन्त्रता के बाद विभिन्न सरकारों द्वारा सर्वहारा समाज के उत्थान की जो बात की जाती रही है वह व्यावहारिक रूप में कभी भी परिलक्षित होती नहीं देखी गई जिससे देश अमीर और ग़रीब में बंटता चला गया। देश में एक वर्ग वह है जो साधन-सम्पन्न है और दूसरा वह जो साधनविहीन। देश में असमानता की खाई के बढ़ने का एक बड़ा कारण, देश में संसाधनों का असमान वितरण है। 1980 के दशक के बाद जो आर्थिक वृद्धि हुई है उसका बारह प्रतिशत भाग उपरि श्रेणी के सिर्फ़ 0.1 प्रतिशत लोगों को मिला है जबकि ग्यारह प्रतिशत भाग निचली श्रेणी के पचास प्रतिशत लोगों के हिस्से में आया है। इस तरह देखें तो यह कहा जा सकता है कि देश में संसाधन हैं, लेकिन आम लोगों की पहुँच से बहुत दूर हैं।
देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी देश की औपचारिक अर्थव्यवस्था का अंग नहीं बन पाया है। वर्तमान समय में देश के सतत्तर प्रतिशत मज़दूर देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का ही भाग बने हुए हैं। इन मज़दूरों की आय बहुत कम है। इनकी आजीविका में सुधार लाए बग़ैर अर्थव्यवस्था का एक सुदृढ़ ढाँचा तैयार करना बहुत मुश्किल है। इसी तरह देश की महिलाओं की एक बड़ी संख्या देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा घटक होने के बावजूद देश की औपचारिक अर्थव्यवस्था से दूर ही नहीं बल्कि घोर उपेक्षा और भेदभाव की भी शिकार है। जहाँ विश्व भर की सैक्सिस्ट अर्थव्यवस्थाएं आम जनता, विशेषकर ग़रीब महिलाओं और लड़कियों की कीमत पर अमीरों की जेब भर रही हैं वहीं इसका बहुत बड़ा और अत्यन्त स्पष्ट प्रभाव भारत के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। भारत में राजनीतिक सशक्तीकरण, आर्थिक भागीदारी व अवसरों और स्वास्थ्य जैसे स्तरों पर महिलाओं के साथ बड़ा भेदभाव किया जाता है। वैसे भी, विभिन्न अध्ययनों में यह बात पहले ही स्पष्ट हो गई है कि लैंगिक असमानता के मामले में भारत विश्व के एक सौ तिरेपन देशों की सूची में एक सौ बारहवें स्थान पर है। ये महिलाएं देश की अर्थव्यवस्था को चलाने में सबसे ज़रूरी भूमिका निभाती हैं और इंजन का काम करती हैं, लेकिन इनके योगदान की गणना नहीं होती है। यहाँ तक कि इनके काम को काम ही नहीं समझा जाता है। इस तरह देखभाल जैसा ज़रूरी इनका काम परिवार और अर्थव्यवस्था, दोनों स्तर पर सिर्फ़ प्रेम का कार्य ही माना जाता है जिसे सम्भालना एक सामान्य प्रक्रिया ही समझा जाता है। देश की ये महिलाएं और लड़कियां खाना बनाने, घर की सफ़ाई करने और बुज़ुर्गों व बच्चों की देखरेख में अपना जीवन लगा देती हैं, लेकिन इनको वर्तमान अर्थव्यवस्था का लाभ बहुत कम मिल पाता है जबकि अर्थव्यवस्था; व्यापार और समाज को चलाने में इनका बड़ा योगदान होता है। ये काम करने वाली ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें काम का वेतन नहीं मिलता। काम के बोझ के चलते इन औरतों को पढ़ने या रोज़गार हासिल करने का भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है जिससे ये अर्थव्यवस्था के निचले भाग में सिमट कर रह जाती हैं। इसी तरह महिलाओं के अतिरिक्त आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, घरेलू काम करने वाले और बुजुर्गों व बच्चों की देखरेख जैसे कामों में लगे अन्य लोग बेहद कम वेतन पर काम करते हैं। ऐसे कामों में न तो काम के घण्टे नियत होते हैं और न ही दूसरे कामों की तरह अतिरिक्त सुविधाएं मिलती हैं। अर्थव्यवस्था की दृष्टि से इन महिलाओं का योगदान उन्नीस लाख करोड़ रुपये वार्षिक के बराबर है जो भारत के तिरानवे हज़ार करोड़ रुपये के वार्षिक शिक्षा-बजट का चार गुणा है।
देश में संसाधनों का असमान वितरण असमानता की खाई को पाटने के मार्ग में एक बड़ा अवरोध है। संसाधनों के असमान वितरण से उपजी यह समस्या कितनी बड़ी है, इसकी एक-बानगी देखिए। देश के एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की सत्तर प्रतिशत अर्थात पिचानवे करोड़ से ज़्यादा जनसंख्या की कुल सम्पत्ति की चार गुणा सम्पत्ति है। देश के सबसे अमीर नौ लोगों के पास देश के सबसे ग़रीब पचास प्रतिशत लोगों की कुल सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अमीर, और अमीर हो रहे हैं और ग़रीब, और ग़रीब। इस तरह अमीरी और ग़रीबी परिवार में आगे से आगे स्थानान्तरित हो रही है। अन्तर सिर्फ़ इतना है कि अमीरों की संख्या ग़रीबों की संख्या की तुलना में बहुत कम है।
संसाधनों के असमान वितरण की एक तस्वीर यह भी है कि एक वर्ष के दौरान देश की सबसे अमीर एक प्रतिशत जनसंख्या की सम्पत्ति में छियालीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि सबसे ग़रीब पचास प्रतिशत जनसंख्या की सम्पत्ति में सिर्फ़ तीन प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ऊपर की दस प्रतिशत जनसंख्या के पास देश की 74.3 प्रतिशत सम्पत्ति है जबकि नीचे की नब्बे प्रतिशत जनसंख्या के पास सिर्फ़ 25.7 प्रतिशत सम्पत्ति है। हाल ही में जारी की गई ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट भी भारत में संसाधनों के इतने ज़्यादा असमान वितरण की पुष्टि करती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के तिरेसठ लोगों के पास देश के वार्षिक बजट से ज़्यादा सम्पत्ति है। इसके अनुसार देश के एक प्रतिशत अमीर प्रतिदिन दो हज़ार दो सौ करोड़ रुपये कमाते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 84 करोड़पति हैं जिनके पास देश की 248 बिलियन डॉलर की सम्पत्ति है। इस तरह देखें तो वर्तमान समय में भारत की अठावन प्रतिशत सम्पत्ति पर एक प्रतिशत अमीरों का कब्ज़ा है। इससे अर्थव्यवस्था में लोगों के बीच खाई का लगातार बढ़ना निश्चित है।
अमीर और ग़रीब के बीच के अन्तर की रूपरेखा देश में सरकारी और निजी, हर स्तर पर तैयार की जाती है। भारत में सरकारी स्तर पर जहाँ एक शीर्ष अधिकारी को अढ़ाई लाख रुपये तक का वेतन दिया जाता है वहीं एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी इसका लगभग दसवां हिस्सा ही वेतन पाता है। वहीं बेरोज़गारों की वह भीड़ भी है जिसमें किसी एक भी बेरोज़गार को एक भी रुपया उपलब्ध करवाने के लिए सरकार के पास कोई नीति या योजना नहीं है। दूसरी तरफ़, भारत के निजी क्षेत्र का भी यही हाल है। उदाहरण के लिए एक शीर्ष निजी कम्पनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और उसके सामान्य कर्मचारी के वेतन में चार सौ गुणा से ज़्यादा का अन्तर है।
यह बहुत ही चिन्ता का विषय है कि संसाधनों के असमान वितरण का दंश झेल रहे देश के बाईस राज्य ग़रीबी दूर करने के अपने लक्ष्य से बुरी तरह पिछड़े हुए हैं। असमानता कम करने के लिए ग़रीबों के लिए विशेष नीतियां बनाकर उन्हें व्यावहारिक रूप दिए जाने की ज़रूरत है। सरकार को शिक्षा, स्वास्थ, स्वच्छता, जल और देखरेख के लिए ज़्यादा धन की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे लोगों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के साथ-साथ रोज़गार भी उपलब्ध करवाया जा सकता है। अगर सकल घरेलू उत्पाद का थोड़ा-सा भी हिस्सा सिर्फ़ देखरेख की व्यवस्था पर ही ख़र्च कर दिया जाए तो इससे एक से दो करोड़ नए रोज़गार पैदा किए जा सकते हैं।
संसाधनों के असमान वितरण से पैदा हुई आर्थिक असमानता ने देश में ग़रीबी की समस्या को भी बढ़ाया है। यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि देश में ग़रीबी का एक बड़ा कारण संसाधनों के असमान वितरण से पैदा हुई आर्थिक असमानता है, लेकिन इस ग़रीबी का एक और बड़ा कारण उपभोग-विषमता भी है। 1990 के दशक से आरम्भ हुए आर्थिक उदारीकरण या वैश्वीकरण के बाद से उपभोग-विषमता बढ़ी है। यह उपभोग-विषमता शहरी क्षेत्रों में ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी है। वर्तमान समय में क्रय-क्षमता के अभाव में बाज़ार लोगों से दूर होता जा रहा है। रोज़गार के अभाव में यह समस्या और भी गम्भीर होती जा रही है।
देश की अर्थव्यवस्था का ढाँचा मज़बूत करने और विश्व की शीर्ष तीन अर्थव्यवस्थाओं में स्थान बनाने के लिए देश में असमानता को कम करने की दिशा में प्राथमिकता के आधार पर काम किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में एक ऐसा वातावरण बनाए जाने की ज़रूरत है जिसमें पारस्परिक रूप से लाभप्रद पारिस्थितिकी तन्त्र में बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा, यथोचित रोज़गार, न्याय, उन्नत तकनीक और उत्कृष्ट प्रौद्योगिकी तक देश के लोगों की पहुँच बनाई जा सके। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय जैसी ज़रूरतें लोगों से दूर न हों। यह बात नहीं भूली जानी चाहिए कि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारत वैश्विक मानकों में अभी भी बुरी तरह पिछड़ा हुआ है। स्वास्थ्य-सेवाओं एवं शिक्षा के प्रसार, इनकी गुणवत्ता और इनको सभी को सहज-सुलभ करवाने जैसे सभी पहलुओं पर समान व प्रभावी रूप से काम किया जाना चाहिए। देश में पारम्परिक रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाने के साथ-साथ अपारम्परिक रोज़गार का भी सृजन किया जाना चाहिए। देश की अर्थव्यवस्था में लोगों के बीच के बहुत बड़े अन्तर को कम करना वर्तमान समय की एक बहुत बड़ी ज़रूरत है।

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