बेरोज़गारी की बढ़ती दर और सवाल
संजय ठाकुर
भारत में बेरोज़गारी की मौजूदा दर पिछले पैन्तालीस वर्षों में सबसे ज़्यादा है। देश में रोज़गार और बेरोज़गारी से सम्बन्धित आँकड़े जुटाकर पेश की गई राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट के अनुसार यह दर 6.1 प्रतिशत है जो कि वर्ष 1972-73 के बाद सबसे ज़्यादा है जबकि वर्ष 2011-12 में यह सिर्फ़ 2.2 प्रतिशत थी। केन्द्र सरकार ने एक वर्ष पहले रोज़गार से सम्बन्धित सर्वेक्षण न करवाए जाने की बात कही थी। इसके बाद जब सर्वेक्षण करवाया गया तो रोज़गार की बुरी स्थिति सामने आई और राष्ट्रीय सांख्यिकी आयोग द्वारा मंज़ूरी दिए जाने के बाद भी सरकार ने इसे जारी नहीं किया। रोज़गार के आँकड़े जारी न किए जाने के विरोध-स्वरूप आयोग के कार्यकारी अध्यक्ष पी. सी. मोहनन और सदस्य जे. वी. मीनाक्षी ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। इनके त्यागपत्र से उपजे विवाद के बाद यह रिपोर्ट सामने आई तो सरकार के बेरोज़गारी के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण का पता चला। बेरोज़गारी से सम्बन्धित आँकड़े उपलब्ध न होने से सरकार पर पहले से ही लगातार सवाल उठ रहे थे कि भारत में रोज़गार की स्थिति जानने के लिए सर्वेक्षण क्यों नहीं करवाया जा रहा है। इसका सीधा-सा अर्थ यही निकलता है कि सरकार देश में रोज़गार और बेरोज़गारी की वास्तविक स्थिति से सम्बन्धित तथ्यों को सामने लाने से बच रही थी। सरकार के इस रवैये से देश में बढ़ती बेरोज़गारी के सम्बन्ध में उसकी गम्भीरता पर सवाल तो उठेंगे ही।
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन की रिपोर्ट में इस बात को भी उजागर किया गया है कि बेरोज़गारों में सबसे ज़्यादा संख्या युवाओं की है जो तेरह से सत्ताईस प्रतिशत है। ज़्यादातर बेरोज़गार शहरी क्षेत्रों में हैं। शहरी क्षेत्रों में जहाँ बेरोज़गारी की दर 7.8 प्रतिशत है वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में यह दर 5.3 प्रतिशत है। शहरी क्षेत्रों में पन्द्रह से उनत्तीस वर्ष के आयु-वर्ग में बेरोज़गारी की दर सबसे ज़्यादा है। शहरों में इस आयु-वर्ग के 18.7 प्रतिशत युवक और 27.2 प्रतिशत युवतियां जबकि ग्रामीण क्षेत्रों में 17.4 प्रतिशत युवक और 13.6 प्रतिशत युवतियां बेरोज़गार हैं। यह समस्या तब और भी विकट हो जाती है जब हर महीने लगभग दस लाख नए रोज़गार की ज़रूरत पड़ती है और इसकी तुलना में रोज़गार-सृजन न के बराबर ही हो रहा है। इस रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि देश के लगभग सतत्तर प्रतिशत घरों में नियमित वेतन या आय का कोई साधन नहीं है।
सरकार द्वारा लघु व मध्यम दर्जे के उद्योग पूरी तरह से उपेक्षित हैं जबकि ये लगभग चालीस प्रतिशत लोगों को रोज़गार दे रहे हैं। इनका भारतीय निर्मित सामान में पैन्तालीस प्रतिशत और कुल निर्यात में चालीस प्रतिशत योगदान है। इन उद्योगों के लिए कोई भी सहायक सरकारी नीति न होने से इन उद्योगों को कभी भी बढ़ावा नहीं मिल पाया। सरकार की वित्तीय नीतियां भी बड़ी कम्पनियों पर ही केन्द्रित होती हैं। यहाँ तक कि लघु व मध्यम दर्जे के उद्योगों को बैंकों से भी बहुत थोड़ी ही सहायता मिल पाती है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक भी इन लघु उद्योगों को ऋण देने की बजाय बड़ी कम्पनियों को अधिमान देते हैं। वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के इस दौर में प्रतिस्पर्धा बढ़ने से वैसे भी, छोटे उद्यमों को अपने उत्पादों को बाज़ार में बेचना मुश्किल हो गया है। ऐसे में सरकारी उपेक्षा के शिकार इन उद्योगों की मुश्किलें और भी बढ़ जाती हैं।
यह बात ध्यान देने योग्य है कि लगभग चार से पाँच करोड़ कामगार अभी भी भारत के असंगठित व अनौपचारिक उपक्रमों में ही कार्यरत हैं। इनमें ज़्यादा संख्या किसानों की है। संगठित उपक्रमों में रोज़गार के बहुत कम अवसर होने से अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्रों का महत्व और भी बढ़ जाता है। संगठित उपक्रमों में अतिरिक्त श्रमबल के समायोजन की क्षमता अत्यन्त सीमित है। संगठित उपक्रमों में विकास को विशेषकर स्थानीय नीतियां प्रभावित करती हैं। छोटे संगठित क्षेत्रों को कौशल रहित लोगों को रोज़गार देना, नकदी अभिदान आदि जैसी विवशताओं से पार पाना मुश्किल हो जाता है जिस कारण ऐसे उद्यमों का चल पाना खटाई में पड़ जाता है।
यूं तो देश में ग़रीबी-उपशमन और रोज़गार-सृजन के उद्देश्य से सरकार द्वारा बहुत-से कार्यक्रम चलाए गए हैं, लेकिन सही क्रियान्वयन के अभाव में वो कागज़ों में योजनाओं और नीतियों के रूप में ही दर्ज रह जाते हैं जिससे उनका ग़रीबी हटाने, ग़रीबों की आय बढ़ाने, नए रोज़गार पैदा करने, उत्पादक-परिसम्पतियां बनाने और तकनीक व उद्यमिता से सम्बन्धित कौशल बढ़ाने में कोई विशेष योगदान नहीं होता। ये योजनाएं ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों को रोज़गार देने और इनके स्वरोज़गार पर लक्षित हैं, लेकिन सरकार व सम्बन्धित प्रशासन द्वारा सही कार्यरूप न दिए जाने से ये लोग इनका लाभ उठाने से वंचित रह जाते हैं। यह एक विडम्बना ही है कि ग़रीबी हटाने और रोज़गार बढ़ाने के लिए बनाई गई योजनाएं न तो ग़रीबी हटा पाती हैं और न ही रोज़गार-सृजन में ही इनका कोई योगदान होता है।
मौजूदा दौर में देश में ग्रामीण युवाओं को प्रशिक्षण द्वारा रोज़गार उपलब्ध करवाकर उनके सशक्तीकरण पर केन्द्रित ग्रामीण युवा स्वरोज़गार प्रशिक्षण कार्यक्रम, ग्रामीण बेरोज़गारों को रोज़गार प्रदान करने के लिए जवाहर रोज़गार योजना, रोज़गार व खाद्य सुरक्षा उपलब्ध करवाने के लिए सम्पूर्ण ग्रामीण रोज़गार योजना और गाँवों में ग़रीबी रेखा से नीचे जीवन-यापन करने वाले लोगों को एक वर्ष में एक सौ दिन का रोज़गार देने की गारण्टी प्रदान करने के उद्देश्य से महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारण्टी योजना के साथ-साथ श्रमिकों के लिए रोज़गार, कौशल विकास और अन्य सुविधाओं में सुधार करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय श्रमेव जयते योजना जैसे कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। साथ ही चौदह लाख युवाओं को कौशल विकास मन्त्रालय द्वारा क्रियान्वित कौशल-प्रशिक्षण प्रदान करने के लिए प्रधानमन्त्री कौशल विकास योजना के नाम से भी एक कार्यक्रम चलाया जा रहा है। ग्रामीण ग़रीबी व बेरोज़गारी दूर करने एवं स्वरोज़गार को बढ़ावा देने के लिए स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोज़गार योजना और स्वरोज़गार या मज़दूरी द्वारा रोज़गार के माध्यम से शहरी बेरोज़गार एवं अर्द्ध बेरोज़गार ग़रीबों को लाभकारी रोज़गार प्रदान करने के लिए स्वर्ण जयन्ती शहरी रोज़गार योजना जैसे कार्यक्रम भी चलाए जा रहे हैं। अब स्वर्ण जयन्ती ग्राम स्वरोज़गार योजना का पुनर्गठन कर, इसे राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन और स्वर्ण जयन्ती शहरी रोज़गार योजना का पुनर्गठन कर, इसे राष्ट्रीय शहरी आजीविका मिशन का नाम दिया गया है। इसी प्रकार शहरों में रहने वाले लोगों के बेहतर जीवन-यापन एवं शहरों में बुनियादी ढाँचे एवं आर्थिक विकास को बढ़ावा देकर शहरों के कायाकल्प व बदलाव के लिए प्रधानमन्त्री आवास योजना, अटल योजना और स्मार्ट शहर योजना जैसे कार्यक्रम भी चलाए गए हैं। इनके अतिरिक्त सरकार द्वारा रोज़गार-वृद्धि के उद्देश्य से मेक इन इण्डिया, स्किल इण्डिया, स्टैण्ड अप इण्डिया और स्टार्ट अप इण्डिया जैसे कार्यक्रम भी चलाए गए हैं।
देश में लगातार बढ़ती बेरोज़गारी के चलते यह स्पष्ट है कि ग़रीबी-उपशमन और रोज़गार-सृजन पर केन्द्रित योजनाएं वास्तविक उद्देश्य से बुरी तरह पिछड़ी हुई हैं जिससे इनके क्रियान्वयन के सम्बन्ध में कई सवाल खड़े होते हैं जिनके प्रति सरकार जवाबदेय है। इन योजनाओं के क्रियान्वयन को लेकर बरती गई लापरवाही बेरोज़गारी को लेकर सरकार के नकारात्मक दृष्टिकोण को ही उजागर करती है। योजनाओं का अम्बार लगा देने भर से बेरोज़गारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता। रोज़गार से सम्बन्धित किसी एक योजना के सही क्रियान्वयन से भी निश्चित ही रोज़गार के क्षेत्र में उत्साहजनक परिणाम निकल सकते हैं।
बेरोज़गारी की समस्या से कई मोर्चों पर लड़ने की ज़रूरत है। अनौपचारिक व असंगठित क्षेत्रों के मज़दूरों और स्वरोज़गार में लगे लोगों के लिए समुचित प्रशिक्षण की व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि उनके कौशल को बढ़ाकर उनकी उत्पादकता और आय में सुधार लाया जा सके। प्रशिक्षण के क्षेत्र में केन्द्र व राज्यों की सरकारों और ग़ैर-सरकारी संगठनों के बीच तालमेल और पारदर्शिता लाने की ज़रूरत है। श्रमबल में हुई आश्चर्यजनक वृद्धि को अनौपचारिक व असंगठित उपक्रमों में समायोजित किया जाना चाहिए। रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए यह ज़रूरी है कि निर्यात करने वाले बड़े, लघु व मध्यम दर्जे के और कृषि-उत्पाद की प्रोसैसिंग करने वाले उद्योगों को बढ़ावा दिया जाए। इससे गाँवों और कस्बाई क्षेत्रों के युवाओं को भी रोज़गार के लाभ से जोड़ा जा सकेगा। देश में रोज़गार के अनुरूप प्रशिक्षण की बहुत ज़्यादा ज़रूरत है। रोज़गार के लिए लोगों का कौशल बढ़ाने के साथ-साथ रोज़गार के अवसर पैदा किए जाने चाहिए। श्रमबल की गुणवत्ता को बढ़ाने और उच्च गुणवत्ता वाले रोज़गार को पैदा करने में सक्षम विकास-प्रक्रिया की सहायक कौशल-विकास और शिक्षा सम्बन्धी समुचित नीतियों को लागू करने की भी ज़रूरत है। व्यक्तिगत क्षेत्र में रोज़गार-सृजन के लिए विशेष रूप से महत्वपूर्ण समुचित क्षेत्रीय स्तर की नीतियों का अनुसरण किया जाना चाहिए। क्षेत्रीय स्तर की इन नीतियों का व्यापक रूप से सकल घरेलू उत्पाद की विकास-दर के विकास के उद्देश्य के भी अनुकूल होना चाहिए। कृषि-विस्तार सेवाओं को सुदृढ़ करने के अतिरिक्त उपभोक्ता-अधिभार, स्टाम्प-शुल्क और संपत्ति-कर को और तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए। ऐसी बातों पर ध्यान देकर सात से दस करोड़ लोगों के लिए रोज़गार के अवसर पैदा किए जा सकते हैं। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की बजाय श्रम-बाज़ार में स्थानीय उद्योगों की स्थिति को मज़बूत करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। संगठित क्षेत्रों में श्रम-बाज़ार को चलाने वाली नीतियां सुदृढ़ करने के साथ-साथ एक ऐसा क़ानूनी वातावरण बनाए जाने की भी ज़रूरत है जिसमें ज़्यादा से ज़्यादा मज़दूरों को लाभ पहुँचाया जा सके। ऐसे उपायों से निश्चित ही बेरोज़गारी पर बहुत हद तक नियन्त्रण पाया जा सकता है।