जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता पर सवाल

संजय ठाकुर
ब्यूरो ऑफ़ फार्मा पब्लिक सैक्टर अण्डरटेकिंग्स ऑफ़ इण्डिया (बीपीपीआई) ने भारतीय जन-औषधि परियोजना के अन्तर्गत लोगों को उपलब्ध करवाई जा रहीं जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता पर जो सवाल उठाए हैं उनकी जवाबदेयी सुनिश्चित की जानी चाहिए। यह परियोजना लोगों को कम कीमत पर जैनेरिक दवाइयां उपलब्ध करवाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण व ज़रूरी कदम है, लेकिन गुणवत्ता-युक्त दवाइयों के अभाव में ऐसी किसी भी योजना का औचित्य ही समाप्त हो जाता है। भारत जैसे देश में, जहाँ ग़रीबी और बेरोज़गारी जैसे कई मसले ज़्यादा हावी हैं, प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना जैसी किसी भी योजना का महत्व और उपयोगिता समझी जा सकती है। यह परियोजना उन ग़रीब लोगों तक दवाइयां पहुँचा सकती है जिनकी चिकित्सा तक पहुँच नहीं है। कम कीमत पर दवाइयां उपलब्ध करवाने के अतिरिक्त इस परियोजना के अन्तर्गत खोले गए केन्द्र, कुछ हद तक ही सही, रोज़गार उपलब्ध करवाने का भी काम करते हैं। यह परियोजना न सिर्फ़ ग़रीबों बल्कि मध्यम वर्ग के लोगों के लिए भी कारगर हो सकती है, लेकिन तब तक इसका कोई लाभ नहीं जब तक कि इसके अन्तर्गत उपलब्ध करवाई जाने वाली दवाइयों की गुणवत्ता में सुधार न लाया जाए। ऐसे सुधार के अभाव में इस परियोजना से लाभ लेना तो दूर, उल्टे इससे हानि की ही सम्भावनाएं बढ़ेंगी। इस तरह तो लोगों की जान के साथ खिलवाड़ ही होगा। हालांकि सरकार द्वारा ये दवाइयां बाज़ार से बहुत कम कीमत पर उपलब्ध करवाई जा रही हैं, लेकिन गुणवत्ताहीन दवाइयों का कोई औचित्य नहीं है, चाहे वो मुफ़्त ही क्यों न दी जाएं।
बीपीपीआई की एक जाँच में प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि योजना के अन्तर्गत उपलब्ध करवाई जा रही दवाइयों को बनाने वाली अठारह फार्मा कम्पनियों की दवाइयां गुणवत्ता के मानकों पर खरी नहीं उतरी हैं। इनमें सत्रह कम्पनियां निजी क्षेत्र और एक कम्पनी सार्वजनिक क्षेत्र की है। जो दवाइयां जाँच में गुणवत्ता के मानकों के अनुरूप नहीं पाई गई हैं उनमें दर्द-निवारक, मधुमेह और उच्च रक्तचाप जैसी कई प्रकार की बिमारियों की दवाइयां हैं।
बीपीपीआई सरकार द्वारा उपलब्ध करवाई जा रहीं सस्ती दवाइयों की प्रमुख योजना, प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना का क्रियान्वयन करता है। इण्डियन ड्रग्स ऐण्ड फार्मासियूटिकल्स लिमिटेड की तरह ही बीपीपीआई भी केन्द्र सरकार के औषध विभाग के अन्तर्गत आता है। बीपीपीआई द्वारा विभिन्न फार्मासियूटिकल कम्पनियों से जैनेरिक दवाइयां ख़रीदकर इनकी आपूर्ति प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के अन्तर्गत आने वाले विभिन्न जन-औषधि केन्द्रों को की जाती है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बीपीपीआई द्वारा इस परियोजना के अन्तर्गत कुल चार हज़ार छह सौ सतत्तर जन-औषधि केन्द्रों के लिए एक सौ छियालीस फार्मा कम्पनियों के साथ करार किया गया है।
इण्डियन मैडिकल ऐसोसिएशन (आईऐमए) भी प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के अन्तर्गत उपलब्ध करवाई जा रहीं जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता पर सवाल उठा चुकी है। आईऐमए ने बाज़ार में उपलब्ध घटिया जैनेरिक दवाइयों को लेकर विरोध जताते हुए कहा था कि घटिया जैनेरिक दवाइयों का निर्माण करने वाली कम्पनियों पर सरकार का कोई नियन्त्रण नहीं है। आईऐमए के अनुसार घटिया जैनेरिक दवाइयों में उतनी मात्रा में सॉल्ट नहीं है जितनी मात्रा में किसी रोग को ठीक करने के लिए होना चाहिए जिस कारण ये रोगी पर कारगर नहीं होतीं। आईऐमए ने इस बात पर ज़ोर दिया है कि केन्द्र सरकार को जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता की गारण्टी लेनी चाहिए। एम्स रैज़िडैण्ट डॉक्टर्स ऐसोसिएशन ने भी जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता पर सवाल उठाए हैं।
भारत में जैनेरिक दवाइयों के गुणवत्ता-युक्त न होने का एक बड़ा कारण कड़े नियामक-तन्त्र का न होना है। विभिन्न अवसरों पर ऐसे भी खुलासे हुए हैं कि जैनेरिक दवाइयां बनाने वाली कम्पनियां यूरोपीय और अमरीकी बाज़ार के लिए अच्छी दवाइयां बनाती हैं क्योंकि वहाँ विनियमन बहुत कड़ा है जबकि भारत में विनियमन के ठीक न होने से यहाँ के लिए दवाइयां बनाते समय गुणवत्ता का ध्यान नहीं रखा जाता। देश की नियामक-संस्था ड्रग कण्ट्रोलर जनरल ऑफ़ इण्डिया दवाइयों की जाँच के नतीजे से निकली दत्त-सामग्री पर ध्यान ही नहीं देती है। यहाँ जैनेरिक दवाइयों को लेकर सरकारी तन्त्र के साथ-साथ न्यायपालिका भी गम्भीर नहीं है। इसका अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि जैनेरिक दवाइयों के सम्बन्ध में सर्वोच्च न्यायालय में दायर एक जनहित-याचिका को पन्द्रह मिनट की सुनवाई में ही ख़ारिज कर दिया गया था।
जन-औषधि योजना नवम्बर, 2008 में तत्कालीन संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार द्वारा चिकित्सा-क्षेत्र में महंगी दवाइयों के विकल्प के रूप में लाई गई थी। सितम्बर, 2015 में राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन सरकार ने इसका नाम बदलकर प्रधानमन्त्री जन-औषधि योजना कर दिया। नवम्बर, 2016 में इसी सरकार ने एक बार फिर इसका नाम बदला जिस कारण अब यह योजना प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के नाम से जानी जाती है। यह परियोजना लोगों को बाज़ार से 40 से 80 प्रतिशत कम कीमत पर गुणवत्ता-युक्त दवाइयां उपलब्ध करवाने के लक्ष्य पर केन्द्रित है। इस परियोजना के अन्तर्गत कम कीमत पर जैनेरिक दवाइयां उपलब्ध करवाने के सम्बन्ध में केन्द्र सरकार द्वारा आठ सौ पचास ज़रूरी दवाइयों की कीमतों को नियन्त्रित करने के साथ-साथ हृदय शल्य-चिकित्सा और घुटने की सर्जरी के लिए इस्‍तेमाल होने वाले उपकरणों की कीमतों को कम किया गया है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए देश भर में जन-औषधि केन्द्रों की एक श्रृंखला तैयार की गई है। जन-औषधि केन्द्रों पर जैनेरिक दवाइयों को ब्राण्डेड दवाइयों से बहुत कम दाम पर उपलब्ध करवाने का लक्ष्य है। जन-औषधि केन्द्र आरम्भ करने के लिए देश का कोई भी नागरिक ज़रूरी दस्तावेज़ों के साथ आवेदन कर सकता है। इसके लिए विभिन्न संस्थाएं भी आवेदन कर सकती हैं। प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के अन्तर्गत जन-औषधि केन्द्र खोलने के लिए सरकार की तरफ़ से लोगों को लगभग अढ़ाई लाख रुपये का अनुदान देने का प्रावधान है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों को भारत सरकार की ओर से पचास हज़ार रुपये की अतिरिक्त आर्थिक सहायता भी दी जाती है। जन-औषधि केन्द्र खोलने के लिए बीपीपीआई में पंजीकरण करवाना ज़रूरी है।
वर्तमान समय में देश में स्‍वास्‍थ्‍य-क्षेत्र में व्यापक सुधार लाने की ज़रूरत है। पिछले कुछ वर्षों से देखा जा रहा है कि विभिन्न राज्यों में एम्स जैसे बड़े चिकित्सा-संस्थान खोलने पर तो ज़ोर दिया जाता है, लेकिन राज्य-अस्पतालों, ज़िला-अस्पतालों, और तहसील के स्तर पर खोले गए अस्पतालों की तरफ़ कोई ध्यान नहीं दिया जाता। राज्य-अस्पतालों की हालत ही बड़ी ख़स्ता है, तो फिर ज़िला और तहसील-स्तर के अस्पतालों की हालत का अन्दाज़ा लगाया जा सकता है। ऐसे में कम कीमत की दवाइयों का भी क्या महत्व रह जाता है! पिछले कुछ दिनों से प्रधानमन्त्री से जनता के सम्वाद का चलन लाकर वास्तविक स्थिति पर पर्दा डालने की जो कोशिश की जा रही है वह निश्चित रूप से देश के विकास का मार्ग अवरुद्ध कर देगी। ऐसे किसी भी सम्वाद के माध्यम से सरकार द्वारा वास्तविकता से किनारा करके सरकारी योजनाओं की सफलता को सिद्ध किया जा रहा है। लोगों से सुनियोजित तरीके से अपने पक्ष या समर्थन में कहलवाने की यह परम्परा देश के लिए घातक है। प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के सम्बन्ध में भी यह बात लागू होती है जब इसके लाभार्थियों से वह बुलवाया जाता है जो सरकार के कर्णधार चाहते हैं।
प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के अन्तर्गत उपलब्ध करवाई जा रही दवाइयों पर उठते सवालों से यह स्पष्ट है कि सरकार इस परियोजना को सुचारू रूप से चलाने में विफल रही है। उचित देखरेख के अभाव में यह परियोजना मूल उद्देश्यों की पूर्ति से बहुत दूर है जिससे लोगों तक इसका यथोचित लाभ नहीं पहुँच पा रहा है। सरकार न तो लोगों को गुणवत्ता-युक्त दवाइयां उपलब्ध करवाने में सफल हो पाई है, न ही जनता को जैनेरिक दवाइयों के सम्बन्ध में जागरूक ही कर पाई है। इसी का नतीजा है कि लोग प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना के होते हुए भी महंगी ब्राण्डेड दवाइयां ख़रीदने के लिए मजबूर हैं।
जैनेरिक दवाइयों के सम्बन्ध में किसी भी विसंगति को दूर करना होगा। इन दवाइयों पर लगातार उठते सवालों से तो ये दवाइयां लोगों का रहा-सहा विश्वास भी खो देंगी। ऐसे में प्रधानमन्त्री भारतीय जन-औषधि परियोजना की समीक्षा की ज़रूरत है। सरकार को इस परियोजना को सफल बनाने के लिए पहले तो जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता में समुचित सुधार करना चाहिए फिर लोगों को इनके इस्तेमाल के लिए जागरूक करना चाहिए। हालांकि केन्द्र सरकार ने जैनेरिक दवाइयों के प्रति जागरूकता लाने और इनके इस्तेमाल को बढ़ावा देने के लिए 07 मार्च, 2019 को घोषणा करके सात मार्च को देश भर में जन-औषधि दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया है, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि यह अभियान कहीं दिवस मनाने तक ही सीमित न रह जाए।
जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता के साथ-साथ इनके क्रय-विक्रय और निगरानी से सम्बन्धित प्रक्रिया में भी सुधार लाना होगा। वर्तमान समय में देश में जैनेरिक दवाइयों की गुणवत्ता और दर को नियन्त्रित करने की कोई प्रभावी व्यवस्था नहीं है। इस दिशा में सुधार लाकर लोगों को गुणवत्ता-युक्त जैनेरिक दवाइयां उपलब्ध करवाई जानी चाहिए। सस्ती दवाइयां उपलब्ध करवाने से कहीं ज़्यादा महत्वपूर्ण उच्च गुणवत्ता वाली दवाइयों की उपलब्धता सुनिश्चित करवाना है। किसी भी योजना का तब तक कोई औचित्य नहीं जब तक कि वह अपने उद्देश्य की पूर्ति में सफल न हो।

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