प्लास्टिक पर रोक के मायने
सरकारी दस्तावेज़ों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक के बावजूद व्यापक स्तर पर इसका इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे में प्लास्टिक पर रोक अभी भी दूर की बात है।
संजय ठाकुर
प्लास्टिक के कचरे से पर्यावरण व स्वास्थ्य को पहुँचने वाले ख़तरों के अध्ययन से प्रमाणित होने और प्लास्टिक के निर्माण, भण्डारण, वितरण, बिक्री, आयात, निर्यात, परिवहन और इस्तेमाल पर रोक लगाए जाने के बाद भी विभिन्न राज्यों की सरकारों ने प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से रोकने में कोई उत्साह नहीं दिखाया है जिससे प्लास्टिक का कचरा अभी भी एक समस्या बना हुआ है। सर्वोच्च न्यायालय ने भी प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने के सम्बन्ध में आदेश दिए हैं, लेकिन इनके पालन में विभिन्न राज्यों की सरकारों ने ज़्यादा दिलचस्पी नहीं दिखाई है। केन्द्र सरकार द्वारा भी प्लास्टिक के कचरे से पर्यावरण को होने वाले नुकसान का आकलन करवाने के लिए कई समितियां और कार्यबल गठित किए गए, लेकिन कोई भी उत्साहजनक परिणाम नहीं निकले हैं। देश के कई राज्यों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक लगाने के फ़रमान तो जारी कर दिए गए, लेकिन सरकारों के ढुलमुल रवैये और नीति-निर्माण के स्तर की ख़ामियों से इसके इस्तेमाल को पूरी तरह से रोकने में अभी तक सफलता नहीं मिल पाई है। ऐसे में वास्तविक स्थिति यह है कि सरकारी दस्तावेज़ों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक के बावजूद व्यापक स्तर पर इसका इस्तेमाल हो रहा है। ऐसे में प्लास्टिक पर रोक अभी भी दूर की बात है।
प्लास्टिक के कचरे से होने वाले नुकसान को कम करने के उद्देश्य से प्लास्टिक की थैलियों और डिब्बों का नियमन और प्रबन्धन सही ढंग से करने के दृष्टिगत वन मन्त्रालय ने रि-साइकल्ड प्लास्टिक मैनुफ़ैक्चर ऐण्ड यूसेज रूल्स, 1999 नाम से नियम जारी किए थे जिन्हें वर्ष 2003 में पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1968 के अन्तर्गत संशोधित किया गया। भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा भी धरती में घुलनशील प्लास्टिक के दस मानकों के सम्बन्ध में अधिसूचना जारी की गई है। ऐसे क़ानूनों व नियमों को कड़ाई के साथ लागू न किए जाने से प्लास्टिक का कचरा अभी भी एक बड़ी समस्या बना हुआ है।
प्लास्टिक एक प्रकार का पॉलीमर है जिसका निर्माण ऐथिलीन नामक मोनोमर की दोहराव वाली इकाइयों के संयोजन से होता है। जब ऐथिलीन के अणु को पॉलीऐथिलीन में परिवर्तित करने के लिए ‘पॉलीमराइज़’ किया जाता है तो कार्बन के अणुओं की एक लम्बी श्रृंखला बनती है जिसमें कार्बन के प्रत्येक परमाणु का हाइड्रोजन के दो परमाणुओं से संयोजन किया जाता है। इस प्रकार प्लास्टिक का निर्माण उच्च, अल्प या रैखिक अल्प घनत्व वाले तीन प्रकार के बुनियादी पॉलीऐथिलीन पॉलीमरों से किया जाता है। इसके अतिरिक्त पॉलीप्रोपीलीन और टेरेफ्थैलेट भी प्लास्टिक के ही रूप हैं जो सूक्ष्म कणों के रूप में वायु, जल और भोजन के साथ शरीर में प्रवेश कर, प्रतिरोधी तन्त्र को नुकसान पहुँचाते हैं।
प्लास्टिक एक ऐसा पदार्थ है जो मिट्टी में न घुलने के कारण भूमि में जाकर जल की रिचार्जिंग को रोक सकता है। इससे भूमि की उर्वरा शक्ति भी बुरी तरह से प्रभावित होती है। प्लास्टिक को सही तरीके से नष्ट न किए जाने से प्लास्टिक में मौजूद रसायन भूमि में चले जाते हैं जिससे मिट्टी और भूमिगत जल विषैला हो जाता है। प्लास्टिक का सही निपटान न होने से जल निकास प्रणाली में अवरोध पैदा हो जाता है जिससे पर्यावरण और स्वास्थ्य को भारी नुकसान पहुँचता है। यह जल-जनित रोगों का भी एक बड़ा कारण है। प्लास्टिक को मिट्टी में घुलनशील बनाने के उद्देश्य से इसमें मिलाए गए रासायनिक पदार्थ स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत ख़तरनाक होते हैं। साथ ही प्लास्टिक के थैलों के बिस्फेनॉल जैसे विभिन्न प्रकार के रंग व रंजक धातुओं, जैविक प्रदूषकों और अन्य कार्बनिक रसायनों के मिश्रण से बने होने के कारण ये पर्यावरण और स्वास्थ्य की दृष्टि से ज़्यादा ख़तरनाक हो जाते हैं। इनमें कुछ रंग और रंजक तो इतने ख़तरनाक होते हैं कि उनसे कैंसर तक हो सकता है। ये रंग और रंजक प्लास्टिक की थैलियों में रखे खाद्य पदार्थों से रासायनिक क्रिया करके उन्हें विषैला बना देते हैं। प्लास्टिक के निर्माण में अल्प अस्थिर प्रकृति के अम्ल और अल्कोहल के रूप में बने कार्बोनेट ऐस्टर नामक रसायन और कैडमियम व जस्ता जैसी विषैली धातुओं का इस्तेमाल खाद्य पदार्थों से मिलकर कैंसर पैदा करने की सम्भावना को बढ़ा देता है। कैडमियम के इस्तेमाल से उल्टियां, हृदय के आकार का बढ़ना और मस्तिष्क के ऊतकों का क्षरण जैसी समस्याएं हो सकती हैं।
देश में सबसे ज़्यादा प्लास्टिक का कचरा महाराष्ट्र में होता है जहाँ प्रतिवर्ष चार लाख उनहत्तर हज़ार अठानवे टन प्लास्टिक का कचरा पैदा होता है। इसके बाद गुजरात में प्रतिवर्ष दो लाख उनहत्तर हज़ार दो सौ चौरानवे टन, दिल्ली में अढ़ाई लाख टन, तमिलनाडु में एक लाख पचास हज़ार तीन सौ तेईस टन, उत्तर प्रदेश में एक लाख तीस हज़ार सात सौ सतत्तर टन और कर्नाटक में एक लाख उनत्तीस हज़ार छह सौ टन प्लास्टिक का कचरा पैदा होता है। सबसे कम प्लास्टिक का कचरा मेघालय में होता है जहाँ प्रतिवर्ष तेरह टन कचरा निकलता है। इसके बाद अरुणाचल प्रदेश में प्रतिवर्ष साढ़े चौदह टन, मणिपुर में तीस टन, गोवा में एक सौ छह टन और उत्तराखण्ड में तीन हज़ार सोलह टन प्लास्टिक का कचरा निकलता है। प्रतिवर्ष समुद्र में जाने वाला प्लास्टिक का कचरा अस्सी लाख टन है।
प्लास्टिक के इस्तेमाल से पर्यावरण और स्वास्थ्य पर पड़ने वाले बुरे प्रभाव को ध्यान में रखते हुए देश के बहुत-से राज्यों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक तो लगाई गई है, लेकिन इन राज्यों की सरकारों की आधी-अधूरी कोशिशों से प्लास्टिक के इस्तेमाल को पूरी तरह से नहीं रोका जा सका है। प्लास्टिक पर रोक लगाने वाले राज्यों में सिक्किम, महाराष्ट्र, तमिलनाडु, अरुणाचल प्रदेश, नागालैण्ड, त्रिपुरा, हिमाचल प्रदेश, छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, दिल्ली, राजस्थान, कर्नाटक, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, गोवा, कोलकाता, उत्तराखण्ड, जम्मू-कश्मीर, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश और बिहार शामिल हैं। इनके अतिरिक्त गुजरात, केरल, उड़ीसा और पश्चिम बंगाल में भी आंशिक रूप से प्लास्टिक के इस्तेमाल पर रोक लगाई गई है। तेलंगाना, असम, मेघालय, मणिपुर और मिज़ोरम में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर अभी भी कोई रोक नहीं है। कहीं पर तो राज्य सरकार ने ख़ुद ही प्लास्टिक पर प्रतिबन्ध लगाने की घोषणा की, तो कहीं पर उच्च न्यायालय के आदेश पर राज्य सरकार द्वारा इस पर प्रतिबन्ध लगाया गया।
प्लास्टिक पर रोक का विभिन्न राज्यों की सरकारों का फ़ैसला वातावरण की स्वच्छता और लोगों के स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण साबित हो सकता था, लेकिन इसके व्यावहारिकता से कोसों दूर होने से यह इतना कारगर नहीं है। इस फ़ैसले के साथ नीति-निर्माण के स्तर पर ऐसी बहुत-सी ख़ामियां जुड़ी हैं जिनके चलते प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी रोक की बात सोचना बेकार है। सरकार द्वारा बग़ैर किसी कार्य-नीति के प्लास्टिक पर रोक लगाने की घोषणा तो कर दी गई, लेकिन इसको अमल में लाने के लिए सभी ज़रूरी बातों को नज़रअन्दाज़ कर दिया गया।
प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी रोक लगाने के लिए पहली ज़रूरी बात तो इस पर रोक लगाने से पहले लोगों के लिए इसके विकल्प को सामने लाने की थी। विभिन्न राज्यों की सरकारों ने प्लास्टिक पर रोक लगाने का फ़ैसला तो कर लिया, लेकिन इसके विकल्प की तरफ़ ज़रा भी ध्यान नहीं दिया। इससे हुआ यह कि प्लास्टिक पर रोक के बाद आज तक प्लास्टिक का स्थाई विकल्प नहीं लाया जा सका। दूसरी बात यह कि प्लास्टिक पर पूरी रोक लगाने की बजाय प्लास्टिक के इस्तेमाल के सम्बन्ध में छूट दी गई जिससे सरकारों की आधी-अधूरी कोशिशों के चलते प्लास्टिक के इस्तेमाल की छूट मिली रही। तीसरी बात यह कि लोगों को प्लास्टिक से होने वाले नुकसान के सम्बन्ध में जागरूक नहीं किया गया जिसके चलते प्लास्टिक के इस्तेमाल को बन्द करने का कारण न समझ पाने से लोग इसका इस्तेमाल अभी भी कर रहे हैं। प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी रोक के लिए उस प्लास्टिक पर भी गम्भीरता से विचार किए जाने की ज़रूरत थी जो कई तरह के सामान की पैकिंग में या पैकिंग के साथ आता है। ऐसे सामान में दूध और मक्खन जैसा ज़रूरत का सामान तो है ही साथ ही पॉउच की पैकिंग में आने वाला तेल व घी, बिस्कुट, चिप्स, नमकीन, कुरकुरे और डिटर्जैण्ट पॉउडर जैसा सामान भी है। इसके अलावा बहुत-सी पत्रिकाएं भी प्लास्टिक की पैकिंग में आती हैं। इनमें फ़ैशन, सजावट, डिज़ाइनिंग, कम्प्यूटर, ऑटो व फ़िल्म-पत्रिकाओं के साथ-साथ ज्योतिष की कई पत्रिकाएं भी हैं। विभिन्न सरकारों का ध्यान ऐसे प्लास्टिक पर ज़रा भी नहीं गया। इस पर तो पहले विचार किए जाने की ज़रूरत थी क्योंकि ऐसे प्लास्टिक को रोके बग़ैर प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी रोक लगाना मुश्किल है। इसके सम्बन्ध में तो एक सुदृढ़ नीति और कारगर कार्य-योजना की ज़रूरत थी क्योंकि ज़्यादातर सामान प्लास्टिक में पैक होकर आता है। एक और बात यह कि प्लास्टिक के इस्तेमाल को रोकने के लिए इस सम्बन्ध में बनाए गए क़ानून को भी प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया जिससे लोगों को प्लास्टिक के इस्तेमाल की छूट मिली रही। प्लास्टिक पर रोक लगाने के फ़ैसले के समय विभिन्न राज्यों की सरकारों ने मौजूदा प्लास्टिक को नष्ट करने के लिए भी कोई योजना नहीं बनाई। सरकार के इस फ़ैसले के समय सभी राज्यों में बहुत-सा प्लास्टिक मौजूद था। इस तरह से विभिन्न राज्यों की सरकारों की आधी-अधूरी कोशिशों के चलते प्लास्टिक पर रोक को प्रभावी नहीं बनाया जा सका।
यह बात पूरी तरह से स्पष्ट है कि विभिन्न राज्यों की सरकारों ने प्लास्टिक पर रोक लगाने से पहले सभी ज़रूरी बातों को नज़रअन्दाज़ कर दिया जिस कारण ये सरकारें प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगाने में अभी भी नाकाम हैं। प्लास्टिक के इस्तेमाल पर पूरी तरह से रोक लगाने की दिशा में अभी भी काम किया जा सकता है। इसके लिए राज्यों की सरकारों को गम्भीरता से विचार कर, सुदृढ़ नीति व कारगर कार्य-योजना तैयार करनी होगी। विभिन्न सरकारों की आधी-अधूरी कोशिशों से प्लास्टिक पर पूरी तरह से रोक नहीं लगने वाली।