तुम आईं

केदारनाथ सिंह

तुम आईं
जैसे छीमियों में धीरे- धीरे
आता है रस
जैसे चलते-चलते एड़ी में
काँटा जाए धंस
तुम दिखीं
जैसे कोई बच्चा
सुन रहा हो कहानी
तुम हंसीं
जैसे तट पर बजता हो पानी
तुम हिलीं
जैसे हिलती है पत्ती
जैसे लालटेन के शीशे में
काँपती हो बत्ती
तुमने छुआ
जैसे धूप में धीरे- धीरे
उड़ता है भुआ
और अन्त में
जैसे हवा पकाती है गेहूं के खेतों को
तुमने मुझे पकाया
और इस तरह
जैसे दाने अलगाये जाते हैं भूसे से
तुमने मुझे ख़ुद से अलगाया।

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