मुक्तक
अनन्त आलोक
नदी कोई समन्दर की अदाओं पर मचल बैठी,
पकड़ दो हाथों से अपनी ही धारा को बदल बैठी।
इधर बैठी उधर बैठी अचल बैठी उछल बैठी,
सम्भल नहीं पा रही जब से मुहब्बत में फिसल बैठी।
अनन्त आलोक
नदी कोई समन्दर की अदाओं पर मचल बैठी,
पकड़ दो हाथों से अपनी ही धारा को बदल बैठी।
इधर बैठी उधर बैठी अचल बैठी उछल बैठी,
सम्भल नहीं पा रही जब से मुहब्बत में फिसल बैठी।