जो न बन पाई तुम्हारे

माखनलाल चतुर्वेदी

जो न बन पाई तुम्हारे
गीत की कोमल कड़ी
तो मधुर मधुमास का वरदान क्या है
तो अमर अस्तित्व का अभिमान क्या है
तो प्रणय में प्रार्थना का मोह क्यों है
तो प्रलय में पतन से विद्रोह क्यों है
आए या जाए कहीं
असहाय दर्शन की घड़ी
जो न बन पाई तुम्हारे
गीत की कोमल कड़ी।

सूझ ने ब्रह्माण्ड में फेरी लगाई
और यादों ने सजग धेरी लगाई
अर्चना कर सोलहों साधें सधीं हाँ
सोलहों श्रृंगार ने सौहें बदीं हाँ
मगन होकर गगन पर
बिखरी व्यथा बन फुलझड़ी
जब न बन पाई तुम्हारे
गीत की कोमल लड़ी।

याद ही करता रहा यह लाल टीका
बन चला जंजाल यह इतिहास जी का
पुष्प पुतली पर प्रणयिनी चुन न पाई
साँस और उसाँस के पट बुन न पाई।

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