ज़िक्र

उर्वशी भट्ट

कोई हवा का झोंका लहककर
मेज़ पर करीने से रखी
किताबों से उलझ जाता है
कई पन्ने बिखरकर
तितलियों की मानिन्द
मेरे आसपास मँडराते हैं
जिनके कई हर्फ़ों पर
तुमने लकीरें खींची थीं।

दीवार पर टंगे
कैलेण्डर के कई पन्ने
फड़फड़ाते हुए
पीछे की तरफ़ लौटते हैं
फिर झूल जाता है मन
गुज़री हुईं उन तारीख़ों के
पायदान पर
जहाँ नेह-निमन्त्रण से प्लावित
तुम्हारे मेघ-मन्द्र स्वरों ने
जीवन में आनन्द के महापर्व का
प्रारम्भ किया था।

कभी तुम्हारे पैरों से लिपटी
आँगन की मिट्टी
ख़ुशबू-सी महकती है
मन के कछार पर
सरसों के खिले फूलों-सी
स्मृतियों की अनुगूँज उठती है
और ह्रदय
उस आह्लाद से भर जाता है
जिससे जीवन का उत्स
साँस लेता है।

एक पूरी शाम
दूध में घुले बताशे की मिठास-सी
तर हो जाती है
तुम्हारे पग-चिन्हों से
आकाश का नीला वस्त्र
आरक्त हो उठता है
मुझे घेरती निद्रा
तुम्हारे स्वप्न के सूर्योदय का
सेतु बन जाती है।

अन्तस उल्लास के अनहद नाद से
गुंजित हो जाता है
जब कभी तुम्हारा ज़िक्र होता है।

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