संजय ठाकुर
यह कहना निश्चित रूप से अतिशयोक्तिपूर्ण है कि शिक्षा का अधिकार क़ानून बनने के बाद देश में शिक्षा के स्तर में कोई बड़ा सकारात्मक बदलाव आया है। यह तो ज़रूर कहा जा सकता है कि इस क़ानून के बनने के बाद प्राथमिक पाठशालाओं में बच्चों की संख्या बढ़ी है, लेकिन ऐसी संख्या का तब तक कोई महत्व नहीं जब तक शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार नहीं लाया जाता। गुणवत्ता के अभाव में बच्चे पाठशालाओं में पहुँचकर भी कोरे के कोरे ही हैं। पाठशालाओं में बच्चों की संख्या बढ़ाने से कहीं ज़्यादा ज़रूरी शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार लाना है। शैक्षणिक उन्नति का सवाल सीधे तौर पर शिक्षा की गुणवत्ता से जुड़ा है, न कि पाठशालाओं में बच्चों की संख्या से।
सरकार के पास शिक्षा के सम्बन्ध में योजनाओं का तो अम्बार है, लेकिन उचित क्रियान्वयन के अभाव में इनसे शिक्षा के क्षेत्र में लाभ होता कभी देखा नहीं गया। ऐसी योजनाएं शिक्षा के मूल उद्देश्यों की पूर्ति से कोसों दूर हैं। ‘समग्र शिक्षा योजना’ ऐसी ही एक योजना है जिसको प्राथमिक, माध्यमिक और उच्च माध्यमिक शिक्षा के सभी स्तरों पर गुणवत्ता में सुधार के दृष्टिगत महत्वपूर्ण बदलाव के तौर पर पेश किया गया था, लेकिन वास्तविक स्थिति इसके बिल्कुल उलट है। इस योजना के अन्तर्गत ऐसा कुछ भी नहीं किया गया जिससे यह कहा जा सके कि शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार की दिशा में कोई सार्थक प्रयास किए गए हैं। तकनीक का लाभ उठाने और अच्छी गुणवत्ता से युक्त शिक्षा तक सभी राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों की पहुँच बनाना भी इस योजना का एक उद्देश्य था, लेकिन इसकी पूर्ति करने में सभी राज्य और केन्द्र शासित प्रदेश नाकाम रहे। इसी तरह ‘दीक्षा’ नाम से भी एक कार्यक्रम चलाया गया था जिसे शिक्षकों के लिए राष्ट्रीय डिजिटल प्लैटफ़ॉर्म के रूप में प्रचारित किया गया, लेकिन यह भी शिक्षा के मूल उद्देश्यों की पूर्ति से दूर ही रहा। इसी तरह एक योजना ‘नई एकीकृत विद्यालय शिक्षा योजना’ के नाम से भी चलाई गई है जो सर्व शिक्षा अभियान, राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान और शिक्षक-शिक्षण अभियान पर आधारित है। इस योजना के लिए पिचहत्तर हज़ार करोड़ रुपये के भारी बजट का प्रावधान किया गया है। हालांकि यह योजना सबको शिक्षा और अच्छी शिक्षा की परिकल्पना के परिप्रेक्ष्य में लाई गई है जिसका लक्ष्य देश में सबको प्री-नर्सरी से लेकर बारहवीं तक की शिक्षा-सुविधा उपलब्ध करवाने के लिए राज्यों की सहायता करने पर केन्द्रित है, लेकिन शिक्षा के मूल उद्देश्यों की पूर्ति इससे भी नहीं हो रही है। इस योजना में शिक्षा के क्षेत्र में सतत विकास के लक्ष्यों के अनुरूप नर्सरी से लेकर माध्यमिक स्तर तक सबके लिए समान रूप से समग्र और गुणवत्ता से युक्त शिक्षा सुनिश्चित करना, शिक्षकों और प्रौद्योगिकी पर ध्यान केन्द्रित करते हुए विद्यालय-शिक्षा की गुणवत्ता को सुधारना और छात्रों के सीखने की क्षमता में वृद्धि करवाकर उन्हें कई तरह के कौशल और ज्ञान में दक्ष बनाना जैसी बातों का समावेश था, लेकिन नतीजा वही, ढाक के तीन पात। सरकार द्वारा ‘जवाहर नवोदय विद्यालय’ की तर्ज़ पर ‘एकलव्य आदर्श आवासीय विद्यालय योजना’ के अन्तर्गत भी पाठशालाओं की स्थापना की भी घोषणा की गई है। पहले से चल रही योजनाओं की बुरी स्थिति देखकर इसकी सफलता भी निश्चित रूप से सन्दिग्ध है।
सरकार द्वारा संसद में पेश एक रिपोर्ट के अनुसार देश में कुल लगभग तेरह लाख सरकारी पाठशालाओं में से एक लाख पाँच हज़ार छह सौ तीस पाठशालाएं सिर्फ़ एक-एक शिक्षक के भरोसे पर हैं। यह बात और है कि कई पाठशालाएं ऐसी हैं जहाँ एक भी शिक्षक नहीं है। वैसे तो, शिक्षा की यह तस्वीर देश के सभी राज्यों में देखी जा सकती है, लेकिन मध्य प्रदेश; उत्तर प्रदेश और राजस्थान शिक्षा की इस दुर्दशा के मामले में दूसरे राज्यों से बहुत आगे हैं। ऐसी किसी पाठशाला में कार्यरत एक शिक्षक पर बच्चों को सभी विषय पढ़ाने का दायित्व तो है ही साथ ही उसे बच्चों के दोपहर के भोजन तक की भी व्यवस्था करनी होती है। कहाँ तो शिक्षा का अधिकार क़ानून के अन्तर्गत यह प्रावधान किया गया है कि किसी भी पाठशाला में तीस से पैन्तीस बच्चों पर एक शिक्षक का होना ज़रूरी है, और कहाँ देश की लाखों पाठशालाओं में शिक्षक ही नहीं हैं! इस बात को नज़रअन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि देश में ज़्यादातर पाठशालाएं भवन, पर्याप्त संख्या में शिक्षक, पुस्तकालय, शौचालय और पेयजल जैसी मूलभूत सुविधाओं से वंचित हैं। देश में ऐसी पाठशालाएं भी बड़ी संख्या में हैं जहाँ कुछ सुविधाएं उपलब्ध करवाने की खानापूर्ति भर कर दी गई है। उदाहरण के तौर पर कई पाठशालाएं ऐसी हैं जहाँ शौचालय तो हैं, लेकिन उनकी दशा उपयोग करने लायक नहीं है। यह निश्चित रूप से शिक्षा का अधिकार क़ानून का उल्लंघन भी है।
वर्तमान समय में शिक्षा जहाँ बुरी तरह से सरकार की उपेक्षा की शिकार है वहीं शिक्षा के प्रति शिक्षकों की कोताही व उदासीनता और शिक्षक-राजनीति से भी शिक्षा और शिक्षा-मूल्यों के लिए भारी ख़तरा पैदा हो गया है। इस दौर में शिक्षक शिक्षण-कार्य से ज़्यादा राजनीतिक गतिविधियों में दिलचस्पी लेने लगे हैं। ये राजनीतिक गतिविधियां विभागीय स्तर पर तो देखी ही जा सकती हैं साथ ही महत्वाकांक्षाओं का यह जाल देश और देश के राजनीतिक पैमाने पर भी बिछा देखा जाने लगा है। इसकी एक जीती-जागती तस्वीर अपने असली रंग में लोकसभा व विधानसभा चुनावों में नज़र आती है जब शिक्षक-संघ किसी दल-विशेष के लिए काम करने लगते हैं। ऐसे घटनाक्रम का परिप्रेक्ष्य जो भी हो, यह शिक्षण-संस्थानों में चल रहे राजनीतिक दुष्चक्र की पोल तो निश्चित रूप से खोलता ही है। वास्तविकता का एक दूसरा पहलू भी है जो सरकारी शिक्षण-संस्थानों में कार्यरत इन शिक्षकों को सीधे कटघरे में ला खड़ा कर देता है। यह वास्तविकता इन शिक्षकों के किसी दल-विशेष से जुड़े होने से सम्बद्ध है। बहुत-से शिक्षक सरकारी शिक्षण-संस्थानों में कार्यरत रहते हुए भी देश व प्रदेश की राजनीतिक सरगर्मियों का पूरा-पूरा मज़ा लूट रहे हैं। बहुत-से शिक्षक सांसदों व विधायकों जैसा जीवन व्यतीत कर रहे हैं। इनके आचरण और ठाठ को देखकर तो कहीं भी यह नहीं लगता कि इनको सरकार ने पाठशालाओं में पढ़ाने के लिए भर्ती किया है। शिक्षकों की यह राजनीति तो सरकारी व प्रशासनिक व्यवस्था के भी परखचे उधेड़कर रख देती है। देश में शिक्षक-राजनीति के खुले खेल का अन्दाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि यहाँ इतने राजनीतिक दल नहीं हैं जितने कि शिक्षक-संघ। हैरानी की बात तो यह है कि इन शिक्षक-संघों को विभिन्न राज्य सरकारों द्वारा ‘बाक़ायदा’ मान्यता दी गई होती है। सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त ये शिक्षक-संघ निश्चित रूप से शिक्षक-राजनीति की मुँह-बोलती तस्वीर पेश करते हैं। विभिन्न शिक्षक-संघों से जुड़े शिक्षकों को सरकारी शिक्षण-संस्थानों में कार्यरत दूसरे शिक्षकों से बिल्कुल अलग देखा जाता है। इन पर सरकार व प्रशासन द्वारा निर्धारित मापदण्ड भी लागू नहीं होते। इतना ही नहीं सरकार व प्रशासन ने इनके लिए अतिरिक्त अवकाश दिवसों की व्यवस्था कर रखी है। एक कैलेण्डर-वर्ष में इन शिक्षकों को बीस से तीस दिन अतिरिक्त अवकाश दिवस दिए जाते हैं। सरकार व प्रशासन को इस बात की भी कोई परवाह नहीं कि इन शिक्षकों पर ऐसी मेहरबानी भारत देश के संविधान की भी अवहेलना है। संविधान में लोगों को समानता का अधिकार दिया गया है। ऐसे में दो समान शिक्षकों या इससे भी बढ़कर दो समान सरकारी कर्मचारियों को अलग-अलग नज़र से कैसे देखा जा सकता है! ये शिक्षक अव्वल तो पाठशालाओं में कम ही नज़र आते हैं और जब कभी पाठशाला में होते भी हैं तो कक्षा में जाना भी इनकी अपनी इच्छा पर निर्भर करता है। ऐसे में किसी कक्षा के विषय का पाठ्यक्रम अधूरा रह जाए तो इसमें कोई हैरानी की बात नहीं। ये शिक्षक नियमित रूप से कक्षाओं में न जाने के कारण जब अपना पाठ्यक्रम पूरा नहीं करवा पाते तो वार्षिक परीक्षाओं में छात्रों को पास करवाने के लिए नक़ल करवाते हैं। इस तरह से ये शिक्षक अपना वार्षिक परीक्षा परिणाम भी अच्छा, या यूं कहिए कि शत-प्रतिशत तक रखवाने में भी कामयाब हो जाते हैं। इनकी इस ‘कामयाबी’ के पीछे की वास्तविकता तो पर्दे के पीछे की ही बात रह जाती है। विभिन्न शिक्षक-संघों से सम्बद्ध ये शिक्षक पाठशालाओं में रहें या पाठशालाओं से बाहर, हमेशा अपनी राजनीतिक मंशाओं को पूरा करने में ही मसरूफ़ पाए जाते हैं। इसका नतीजा यह निकला है कि शिक्षा में गुणात्मक सुधार होना तो दूर, उल्टे शिक्षा का स्तर लगातार गिरता जा रहा है।
सरकार की उपेक्षा, शिक्षकों के रवैये और शिक्षक-राजनीति की इस बिसात से जो विसंगति सामने निकलकर आती है वह सीधे रूप में शिक्षा के सरोकारों से जुड़ी है। इन सब बातों का ख़ामियाजा शिक्षा जैसे गम्भीर विषय और इससे जुड़े उच्च शिक्षा-मूल्यों को भुगतना पड़ रहा है। इस सारे घटनाक्रम में कोई आहत हो रहा है तो वह है शिक्षा। इस उभरते परिदृश्य पर कोई तस्वीर विकृत रूप में उकेरी जा रही है तो वह है शिक्षा की। अगर सरकार शिक्षा के प्रति गम्भीर नहीं है और शिक्षण-संस्थानों में शिक्षक शिक्षा के मूल उद्देश्यों से भटककर अपने तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों का ताना-बाना बुनते हैं तो शिक्षा का भंवर में फंसना तो निश्चित है जिससे शिक्षा के सार्थक उद्देश्यों की पूर्ति के सन्दर्भ में भी सन्देह पैदा हो जाते हैं। शिक्षा को इस भंवर से मुक्त करवाना बहुत ही ज़्यादा ज़रूरी है।