असमानता की खाई

संजय ठाकुर
राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संस्थान के उपभोग-आँकड़ों, राष्ट्रीय लेखा के आँकड़ों और आयकर-आँकड़ों के विश्लेषण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारत में असमानता की खाई लगातार बढ़ रही है। अमीर और ग़रीब के बीच की लगातार बढ़ती खाई देश के विकास के मार्ग का भी एक बड़ा अवरोध है। इस खाई को पाटे बिना देश के विकास की परिकल्पना बहुत मुश्किल है। देश की स्वतन्त्रता के बाद विभिन्न सरकारों द्वारा सर्वहारा समाज के उत्थान की जो बात की जाती रही है वह व्यावहारिक रूप में कभी भी परिलक्षित होती नहीं देखी गई जिससे देश अमीर और ग़रीब में बंटता चला गया। देश में एक वर्ग वह है जो साधन-सम्पन्न है और दूसरा वह जो साधनविहीन। देश में असमानता की खाई के बढ़ने का एक बड़ा कारण, देश में संसाधनों का असमान वितरण है। 1980 के दशक के बाद जो आर्थिक वृद्धि हुई है उसका बारह प्रतिशत भाग उपरि श्रेणी के सिर्फ़ 0.1 प्रतिशत लोगों को मिला है जबकि ग्यारह प्रतिशत भाग निचली श्रेणी के पचास प्रतिशत लोगों के हिस्से में आया है। इस तरह देखें तो यह कहा जा सकता है कि देश में संसाधन हैं, लेकिन आम लोगों की पहुँच से बहुत दूर हैं।
देश की जनसंख्या का एक बहुत बड़ा हिस्सा अभी भी देश की औपचारिक अर्थव्यवस्था का अंग नहीं बन पाया है। वर्तमान समय में देश के सतत्तर प्रतिशत मज़दूर देश की अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का ही भाग बने हुए हैं। इन मज़दूरों की आय बहुत कम है। इनकी आजीविका में सुधार लाए बग़ैर अर्थव्यवस्था का एक सुदृढ़ ढाँचा तैयार करना बहुत मुश्किल है। इसी तरह देश की महिलाओं की एक बड़ी संख्या देश की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा घटक होने के बावजूद देश की औपचारिक अर्थव्यवस्था से दूर ही नहीं बल्कि घोर उपेक्षा और भेदभाव की भी शिकार है। जहाँ विश्व भर की सैक्सिस्ट अर्थव्यवस्थाएं आम जनता, विशेषकर ग़रीब महिलाओं और लड़कियों की कीमत पर अमीरों की जेब भर रही हैं वहीं इसका बहुत बड़ा और अत्यन्त स्पष्ट प्रभाव भारत के सन्दर्भ में देखा जा सकता है। भारत में राजनीतिक सशक्तीकरण, आर्थिक भागीदारी व अवसरों और स्वास्थ्य जैसे स्तरों पर महिलाओं के साथ बड़ा भेदभाव किया जाता है। वैसे भी, विभिन्न अध्ययनों में यह बात पहले ही स्पष्ट हो गई है कि लैंगिक असमानता के मामले में भारत विश्व के एक सौ तिरेपन देशों की सूची में एक सौ बारहवें स्थान पर है। ये महिलाएं देश की अर्थव्यवस्था को चलाने में सबसे ज़रूरी भूमिका निभाती हैं और इंजन का काम करती हैं, लेकिन इनके योगदान की गणना नहीं होती है। यहाँ तक कि इनके काम को काम ही नहीं समझा जाता है। इस तरह देखभाल जैसा ज़रूरी इनका काम परिवार और अर्थव्यवस्था, दोनों स्तर पर सिर्फ़ प्रेम का कार्य ही माना जाता है जिसे सम्भालना एक सामान्य प्रक्रिया ही समझा जाता है। देश की ये महिलाएं और लड़कियां खाना बनाने, घर की सफ़ाई करने और बुज़ुर्गों व बच्चों की देखरेख में अपना जीवन लगा देती हैं, लेकिन इनको वर्तमान अर्थव्यवस्था का लाभ बहुत कम मिल पाता है जबकि अर्थव्यवस्था; व्यापार और समाज को चलाने में इनका बड़ा योगदान होता है। ये काम करने वाली ऐसी महिलाएं हैं जिन्हें काम का वेतन नहीं मिलता। काम के बोझ के चलते इन औरतों को पढ़ने या रोज़गार हासिल करने का भी पर्याप्त समय नहीं मिल पाता है जिससे ये अर्थव्यवस्था के निचले भाग में सिमट कर रह जाती हैं। इसी तरह महिलाओं के अतिरिक्त आँगनवाड़ी कार्यकर्ता, घरेलू काम करने वाले और बुजुर्गों व बच्चों की देखरेख जैसे कामों में लगे अन्य लोग बेहद कम वेतन पर काम करते हैं। ऐसे कामों में न तो काम के घण्टे नियत होते हैं और न ही दूसरे कामों की तरह अतिरिक्त सुविधाएं मिलती हैं। अर्थव्यवस्था की दृष्टि से इन महिलाओं का योगदान उन्नीस लाख करोड़ रुपये वार्षिक के बराबर है जो भारत के तिरानवे हज़ार करोड़ रुपये के वार्षिक शिक्षा-बजट का चार गुणा है।
देश में संसाधनों का असमान वितरण असमानता की खाई को पाटने के मार्ग में एक बड़ा अवरोध है। संसाधनों के असमान वितरण से उपजी यह समस्या कितनी बड़ी है, इसकी एक-बानगी देखिए। देश के एक प्रतिशत अमीर लोगों के पास देश की सत्तर प्रतिशत अर्थात पिचानवे करोड़ से ज़्यादा जनसंख्या की कुल सम्पत्ति की चार गुणा सम्पत्ति है। देश के सबसे अमीर नौ लोगों के पास देश के सबसे ग़रीब पचास प्रतिशत लोगों की कुल सम्पत्ति के बराबर सम्पत्ति है। इसका स्पष्ट अर्थ है कि अमीर, और अमीर हो रहे हैं और ग़रीब, और ग़रीब। इस तरह अमीरी और ग़रीबी परिवार में आगे से आगे स्थानान्तरित हो रही है। अन्तर सिर्फ़ इतना है कि अमीरों की संख्या ग़रीबों की संख्या की तुलना में बहुत कम है।
संसाधनों के असमान वितरण की एक तस्वीर यह भी है कि एक वर्ष के दौरान देश की सबसे अमीर एक प्रतिशत जनसंख्या की सम्पत्ति में छियालीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि सबसे ग़रीब पचास प्रतिशत जनसंख्या की सम्पत्ति में सिर्फ़ तीन प्रतिशत की वृद्धि हुई है। ऊपर की दस प्रतिशत जनसंख्या के पास देश की 74.3 प्रतिशत सम्पत्ति है जबकि नीचे की नब्बे प्रतिशत जनसंख्या के पास सिर्फ़ 25.7 प्रतिशत सम्पत्ति है। हाल ही में जारी की गई ऑक्सफ़ैम की रिपोर्ट भी भारत में संसाधनों के इतने ज़्यादा असमान वितरण की पुष्टि करती है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि देश के तिरेसठ लोगों के पास देश के वार्षिक बजट से ज़्यादा सम्पत्ति है। इसके अनुसार देश के एक प्रतिशत अमीर प्रतिदिन दो हज़ार दो सौ करोड़ रुपये कमाते हैं। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 84 करोड़पति हैं जिनके पास देश की 248 बिलियन डॉलर की सम्पत्ति है। इस तरह देखें तो वर्तमान समय में भारत की अठावन प्रतिशत सम्पत्ति पर एक प्रतिशत अमीरों का कब्ज़ा है। इससे अर्थव्यवस्था में लोगों के बीच खाई का लगातार बढ़ना निश्चित है।
अमीर और ग़रीब के बीच के अन्तर की रूपरेखा देश में सरकारी और निजी, हर स्तर पर तैयार की जाती है। भारत में सरकारी स्तर पर जहाँ एक शीर्ष अधिकारी को अढ़ाई लाख रुपये तक का वेतन दिया जाता है वहीं एक चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी इसका लगभग दसवां हिस्सा ही वेतन पाता है। वहीं बेरोज़गारों की वह भीड़ भी है जिसमें किसी एक भी बेरोज़गार को एक भी रुपया उपलब्ध करवाने के लिए सरकार के पास कोई नीति या योजना नहीं है। दूसरी तरफ़, भारत के निजी क्षेत्र का भी यही हाल है। उदाहरण के लिए एक शीर्ष निजी कम्पनी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी और उसके सामान्य कर्मचारी के वेतन में चार सौ गुणा से ज़्यादा का अन्तर है।
यह बहुत ही चिन्ता का विषय है कि संसाधनों के असमान वितरण का दंश झेल रहे देश के बाईस राज्य ग़रीबी दूर करने के अपने लक्ष्य से बुरी तरह पिछड़े हुए हैं। असमानता कम करने के लिए ग़रीबों के लिए विशेष नीतियां बनाकर उन्हें व्यावहारिक रूप दिए जाने की ज़रूरत है। सरकार को शिक्षा, स्वास्थ, स्वच्छता, जल और देखरेख के लिए ज़्यादा धन की व्यवस्था करनी चाहिए। इससे लोगों को मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करवाने के साथ-साथ रोज़गार भी उपलब्ध करवाया जा सकता है। अगर सकल घरेलू उत्पाद का थोड़ा-सा भी हिस्सा सिर्फ़ देखरेख की व्यवस्था पर ही ख़र्च कर दिया जाए तो इससे एक से दो करोड़ नए रोज़गार पैदा किए जा सकते हैं।
संसाधनों के असमान वितरण से पैदा हुई आर्थिक असमानता ने देश में ग़रीबी की समस्या को भी बढ़ाया है। यह बात निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि देश में ग़रीबी का एक बड़ा कारण संसाधनों के असमान वितरण से पैदा हुई आर्थिक असमानता है, लेकिन इस ग़रीबी का एक और बड़ा कारण उपभोग-विषमता भी है। 1990 के दशक से आरम्भ हुए आर्थिक उदारीकरण या वैश्वीकरण के बाद से उपभोग-विषमता बढ़ी है। यह उपभोग-विषमता शहरी क्षेत्रों में ज़्यादा तेज़ी से बढ़ी है। वर्तमान समय में क्रय-क्षमता के अभाव में बाज़ार लोगों से दूर होता जा रहा है। रोज़गार के अभाव में यह समस्या और भी गम्भीर होती जा रही है।
देश की अर्थव्यवस्था का ढाँचा मज़बूत करने और विश्व की शीर्ष तीन अर्थव्यवस्थाओं में स्थान बनाने के लिए देश में असमानता को कम करने की दिशा में प्राथमिकता के आधार पर काम किया जाना चाहिए। वर्तमान समय में एक ऐसा वातावरण बनाए जाने की ज़रूरत है जिसमें पारस्परिक रूप से लाभप्रद पारिस्थितिकी तन्त्र में बेहतर स्वास्थ्य व शिक्षा, यथोचित रोज़गार, न्याय, उन्नत तकनीक और उत्कृष्ट प्रौद्योगिकी तक देश के लोगों की पहुँच बनाई जा सके। इस बात पर विशेष ध्यान दिया जाना चाहिए कि स्वास्थ्य, शिक्षा और न्याय जैसी ज़रूरतें लोगों से दूर न हों। यह बात नहीं भूली जानी चाहिए कि स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में भारत वैश्विक मानकों में अभी भी बुरी तरह पिछड़ा हुआ है। स्वास्थ्य-सेवाओं एवं शिक्षा के प्रसार, इनकी गुणवत्ता और इनको सभी को सहज-सुलभ करवाने जैसे सभी पहलुओं पर समान व प्रभावी रूप से काम किया जाना चाहिए। देश में पारम्परिक रोज़गार के अवसर उपलब्ध करवाने के साथ-साथ अपारम्परिक रोज़गार का भी सृजन किया जाना चाहिए। देश की अर्थव्यवस्था में लोगों के बीच के बहुत बड़े अन्तर को कम करना वर्तमान समय की एक बहुत बड़ी ज़रूरत है।

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